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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१२

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कायाकल्प]
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रहोगे ! जाओ, बाहर बैठो; तुम्हारी तो बड़ी देर से जोहाई हो रही है। आज क्यों इतनी देर लगायी?

चक्रधर-यह है कौन ?

निर्मला-आगरे के कोई वकील है, मुंशी यशोदानन्दन !

चक्रधर-मै तो घूमने जाता हूँ। जब यह यमदूत चला जायगा, तो आऊँगा।

निर्मला-वाह रे शर्मीले ! तेरा-सा लड़का तो देखा ही नहीं। आ, जरा सिर में तेल डाल दूं, बाल न जाने कैसे बिखरे हुए हैं। साफ कपड़े पहनकर जरा देर के लिए बाहर जाकर बैठ ।

चक्रधर-घर में भोजन भी है कि व्याह ही कर देने का जी चाहता है ? मैं कहे देता हूँ, विवाह न करूँगा, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय ।

किन्तु स्नेहमयी माता कब सुननेवाली थी। उसने उन्हें जबरदस्ती पकडकर सिर में तेल डाल दिया सन्दूक से एक धुला हुआ कुरता निकाल लायी और यों पहनाने लगी, जैसे कोई बच्चे को पहनाये । चक्रधर ने गरदन फेर ली।

निर्मला-मुझसे शरारत करेगा, तो मार बैठूँगी। इधर ला सिर ! क्या जन्म- भर छटे सॉड़ बने रहने का जी चाहता है ? क्या मुझसे मरते दम तक चूल्हा-चक्की कराता रहेगा ? कुछ दिनों तो बहू का सुख उठा लेने दे।

चक्रधर-तुमसे कौन कहता है भोजन बनाने को ? मैं कल से बना दिया करूँगा। मंगला को क्यों छोड़ रखा है ?

निर्मला- अब मैं मारनेवाली ही हूँ। आज तक कभी न मारा; पर आज पीट चलूँगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ ।

इतने में मुशीजी ने पुकारा-नन्हें, क्या कर रहे हो ? जरा यहाँ तो आओ।

चक्रधर के रहे-साहे होश भी उड़ गये। बोले-जाता तो हुँ, लेकिन कहे देता हूँ, मैं यह जुआ गले मे न डालुगा । जीवन में मनुष्य का यही काम नहीं है कि विवाह कर ले, बच्चों का बाप बन जाय और कोल्हू के बैल की तरह आँखों पर पट्टी बाँधकर गृहस्थी मे जुत जाय।

निर्मला-सारी दुनिया जो करती है, वही तुम्हें भी करना पड़ेगा | मनुष्य का जन्म होता ही किस लिए है ?

चक्रधर-हजारों काम है।

निर्मला-रुपए आज भी नहीं लाये क्या ? कैसे आदमी हैं कि चार-चार महीने हो गये, रुपए देने का नाम ही नहीं लेते ! जाकर अपने दादा को किसी बहाने से भेज दो। कहीं से जाकर रुपए लायें। कुछ दावत आवत का सामान करना ही पड़ेगा, नहीं तो कहेंगे कि नाम बड़े और दर्शन थोड़े।

चक्रधर बाहर आये, तो मुंशी यशोदानन्दन ने खड़े होकर उन्हें छाती से लगा लिया और कुर्सी पर बैठाते हुए बोले--अब की 'सरस्वती' मे आपका लेख दे‌