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[कायाकल्प
 

प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है, वह विद्वान् नहीं है, जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है, जो डण्डे के जोर से अपना स्वार्थ सिद्ध करता है। इसके सिवा उसके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।

यह सोचते-सोचते उन्हें अपना खयाल आया। मैं तो कोई आन्दोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगो की प्राण रक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी अपनी आँखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त तक करता रहूँगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिन्ता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुख होगा, अम्माँजी रोयेंगी, लेकिन मजबूरी है। जब बाहर भी जवान और हाथ-पाँव बाँधे जायँगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हाँ, जरा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।

वह इसी सोच विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाये हुए था, नीचे एक पतलून था, जो कमरबन्द न होने के कारण खिसककर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफा और कोई वस्तु नहीं होती। हमारा घर बचपन से बुढ़ापे तक हर अवस्था में हमारा है। वस्त्र हमारा होते हुए भी हमारा नहीं रहता। आज जो वस्त्र हमारा है, वह कल हमारा न रहेगा। उसे हमारे सुख दुख की जरा भी चिन्ता नहीं होती, फौरन् बेवफाई कर जाता है। हम जरा बीमार हो जायँ, किसी स्थान का जल-वायु जरा हमारे अनुकूल हो जाय कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्जी की दुकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं। उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते। अगर जबर दस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं। वे केवल हमारी पूर्वावस्था के चिह्न होते हैं। मुशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी, पुकार पुकारकर कहती थी—मैं अब इनकी नहीं। किन्तु तहसीलदार साहब हुकूमत के जोर से उसे गले से चिपटाये हुए थे। तुम कितनी ही बेवफाई करो, मेरी कितनी ही बदनामी करो, छोड़ने का नहीं। अच्छे दिनों में तो तुमने हमारे साथ चैन किये, इन बुरे दिनों में तुम्हें क्यों छोडूँ? यों भूत और वर्तमान के संग्राम की मूर्ति बने हुए तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले—क्या करते हो, बेटा? यहाँ तो बड़ा अँधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो। इधर ही से साहब के बँगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें, लिख देना। बात ही कौन सी है। हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूँ। बारे आज दोपहर को जाके सीधा हुआ। पहले बहुत ज्यों त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा।