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[कायाकल्प
 

जमीन पर गिर पड़ा। फिर उठना चाहता था कि राजा साहब उसकी छाती पर चढ़ बैठे और उसका गला जोर से दबाया। कौड़ी-सी आँखें निकल आयीं। मुँह से फिचकुर बहने लगा। सारा नशा, सारा क्रोध, सारा रोब, सारा अभिमान, रफू-चक्कर हो गया।

राजा ने गला छोड़कर कहा—गला घोंट दूँगा, इस फेर में मत रहना। कच्चा ही चबा जाऊँगा। चपरासी या अहलकार नहीं हूँ कि तुम्हारी ठोकरें सह लूँगा।

जिम—राजा साहब, आप सचमुच नाराज हो गया। मैं तो आपसे दिल्लगी करता था। आप तो पहलवान है। आप दिल्लगी मे बुरा मान गया।

राजा—बिलकुल नहीं। मैं दिल्लगी कर रहा हूँ। अब तो आप फिर मेरे साथ दिल्लगी न करेंगे?

जिम—कबी नईं, कबी नईं।

राजा—मैंने जो अर्ज की थी, वह आप मानेंगे या नहीं?

जिम—मानेंगे, मानेंगे, हम सुबह होते ही हुक्म देगा।

राजा—दगा तो न करोगे?

जिम—कबी नईं, कबी नईं। आप भी किसी से यह बात न कहना।

राजा—दगा की, तो इसी तरह फिर पटकूँगा, याद रखना। यह कहकर राजा साहब मिस्टर जिम को छोड़ कर उठ गये। जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया। जरा भी शोर गुल न हुआ। जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने यह मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी।

राजा साहब दिल में सोचते जाते थे कि देखें वादा पूरा करता है या मुकर जाता है। कहीं कल कोई शरारत न करे। उँह, देखी जायगी। इस वक्त तो ऐसी पटकनी दी है कि बचा याद करते होंगे। यह सब वादे के तो सच्चे होते हैं। सुबह को दखूँगा। अगर हुक्म न दिया, तो फिर जाऊँगा। इतना डर तो उसे भी होगा कि मैंने दगा की, तो वह भी कलई खोल देगा। सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा करेगा। मनोरमा अपने घर चली गयी होगी। तड़के ही जाकर उसे यह खबर सुनाऊँगा। खिल उठेगी। आह! उस वक्त उसकी छवि देखने ही योग्य होगी।

राजा साहब घर पहुँचे, तो डेढ़ बज गया था, पर अभी तक सोता न पड़ा था। नौकर-चाकर उनकी राह देख रहे थे। राजा साहब मोटर से उतरकर ज्योंही बरामदे में पहुँचे, तो देखा मनोरमा खड़ी है। राजा साहब ने विस्मित होकर पूछा—क्या तुम घर नहीं गयीं? तब से यहीं हो? रात तो बहुत बीत गयी।

मनोरमा—एक किताब पढ़ रही थी। क्या हुआ?

राजा—कमरे में चलो, बताता हूँ।

राजा साहब ने सारी कथा आदि से अन्त तक बड़े गर्व के साथ खूब नमक लगाकर बयान की। मनोरमा तन्मय होकर सुनती रही। ज्यों-ज्यों वह यह यह वृत्तान्त सुनती