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[कायाकल्प
 

झिनकू—(यशोदानन्दन से) हुजूर को गाने का शौक मालूम होता है।

यशोदा॰—अजी, जब था तब था। सितार वितार की दो-चार गतें बजा लेता था। अब सब छोड़-छाड़ दिया।

झिनकू—कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे। अब की आप ही की हो।

यशोदानन्दन ने भी दो-चार बार इनकार करने के बाद काफी की धुन में एक ठुमरी छेड़ दी। उनका गला मँजा हुया था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त है होकर गाया कि सुनने वाले झूम-झूम गये। उनकी सुरीली तान साज में मिल जाती थी। वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बाँध दिया। झिनकू के भी छक्के छुट गये। मजा यह कि साथ-ही-साथ सितार भी बजाते थे। आस पास के लोग आकर जमा हो गये। समाँ बँध गया। चक्रधर ने यह आवाज सुनी, तो दिल में कहा—यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में है, उसी रंग में रँगे हुए। अब झेंप जाती रही। बाहर आकर बैठ गये।

वज्रघर ने कहा—भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया। बहुत दिनों से ऐसा गाना न सुना था। कैसी रही, झिनकू?

झिनकू—हुजूर, कुछ न पूछिए, सिर धुन रहा हूँ। मेरी तो अब गाने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। आपने हम सबी का रंग फीका कर दिया। पुराने जमाने के रईसों की क्या बातें हैं।

यशोदा॰—कभी-कभी जी बदला लिया करता हूँ, वह भी लुक छिपकर। लड़के सुनते हैं, तो कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं समझता हूँ, जिसमे यह रस नहीं, वह किसी सोहबत में बैठने लायक नहीं। क्यों बाबू चक्रधर, आपको तो शौक होगा?

वज्रधर—जी, छू नहीं गया। बस, अपने लड़कों का हाल समझिए।

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा—मैं गाने को बुरा नहीं समझता। हाँ, इतना जरूर चाहता हूँ कि शरीफ लोग शरीफों ही में गायें बजायें।

यशोदा॰—गुणियों की जात पात नहीं देखी जाती। हमने तो बरसों एक अन्धे फकीर की गुलामी की, तब जाके सितार बजाना आया।

आधीरात के करीब गाना बन्द हुआ। लोगों ने भोजन किया। जब मुंशी यशोदानन्दन बाहर आकर बैठे, तो वज्रधर ने पूछा—आपसे कुछ बातचीत हुई?

यशोदा—जी हाँ, हुई, लेकिन साफ नहीं खुले।

वज्रधर—विवाह के नाम से चिढ़ता है।

यशोदा॰—अब शायद राजी हो जायँ।

वज्रघर—अजी, सैकड़ें आदमी आ-आकर लौट गये। कई आदमी तो दस दस हजार तक देने पर तैयार थे। एक साहब तो अपनी रियासत ही लिख देते थे, लेकिन इसने हामी न भरी।