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[कायाकल्प
 

सम्मुख गिराना चाहते हैं। तनकर बोली––हॉ, इसी लिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की जरूरत है। क्या यह आपके लिए शर्म की बात नही है? अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों जरूरत होती। आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्जत है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। गुरुसेवक का मुँह नन्हा सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिये। आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले। जब वह मोटर पर बैठ गये, तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आयी और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली––मैं कल आपके साथ अवश्य चलूँगी।

राजा ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा––जैसी तुम्हारी खुशी।

मनोरमा––अगर इस मामले में सच्चा फैसला करने के लिए भैयाजी पर हाकिम की अकृपा हुई, तो आपको भैयाजी के लिए कुछ फिक्र करनी पड़ेगी।

राजा––देखी जायगी।

मनोरमा तनकर बोली––क्या कहा?

राजा––कुछ तो नहीं।

मनोरमा––भैयाजी को रियासत में जगह देनी होगी।

राजा––तो दे देना, मैं रोकता कब हूँ?

मनोरमा––कल चार बजे आने की कृपा कीजिएगा। मुझे आपके साथ आज न चलने का बड़ा दुःख है, पर मजबूर हूँ। मैं चली जाऊंगी, तो भैयाजी कुछ का कुछ कर बैठेंगे। आप नाराज तो नहीं हैं।

यह कहते-कहते मनोरमा की आँखें सजल हो गयीं। राजा ने मन्त्र मुग्ध नेत्रों से उसकी ओर ताका और गद्गद् होकर बोले––तुम इसकी जरा भी चिन्ता न करो। तुम्हारा इशारा काफी है। लो, अब खुश होकर मुसकरा दो। देखो, वह हँसी आयी! मनोरमा मुसकरा पड़ी। पानी में कमल खिल गया। राजा साहब ने उससे हाथ मिलाया और चले गये। तब मनोरमा आकर अपनी कुरसी पर बैठ गयी।

इस समय गुरुसेवक की दशा उस आदमी की-सी थी, जिसके सामने कोई महात्मा धूनी रमाये बैठे हो, और बगल में कोई विहसित, विकसित रमणी मधुर संगीत अलाप रही हो। उसका मन तो संगीत की ओर आकर्षित होता है, लेकिन लज्जावश उधर न देखकर वह जाता है और महात्मा के चरणों पर सिर झुका देता है।

मनोरमा कुरसी पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लहरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए