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कायाकल्प]
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बहते देखने में मग्न हो। नाव कभी झोंके खाती है, कभी लहरों के साथ बहती है और कभी डगमगाने लगती है। बालक का हृदय भी उसी भॉति कभी उछलता है, कभी घबराता है और कभी बैठ जाता है।

कुरसी पर बैठे-बैठे मनोरमा को एक झपकी आ गयी। सावन भादों की ठण्ढी हवा निद्रामय होती है। उसका मन स्वप्न साम्राज्य में जा पहुँचा। क्या देखती है कि उसके बचपन के दिन हैं। वह अपने द्वार पर सहेलियों के साथ गुड़ियाँ खेल रही हैं। सहसा एक ज्योतिषी पगड़ी बाँधे, पोथी पत्रे बगल में दबाये आता है। सब लड़कियाँ अपनी गुड़ियों का हाथ दिखाने के लिए दौड़ी हुई ज्योतिषी के पास जाती हैं। ज्योतिषी गुड़ियों के हाथ देखने लगता है। न-जाने कैसे गुड़ियों के हाथ लड़कियो के हाथ बन जाते है। ज्योतिषी एक बालिका का हाथ देखकर कहता है––तेरा विवाह एक बड़े भारी अफसर से होगा। बालिका हँसती हुई अपने घर चली जाती है; तब ज्योतिषी दूसरी बालिका का हाथ देखकर कहता है––तेरा विवाह एक बड़े सेठ से होगा। तू पालकी में बैठकर चलेगी। वह बालिका भी खुश होकर घर चली जाती है। तब मनोरमा की बारी आती है। ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिन्ता में डूब नाते हैं और अन्त में संदिग्ध स्वर मे कहते हैं––तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी और दुःख उठायेगी। यह कहकर वह चल पड़ते हैं; पर मनोरमा उनका हाथ पकड़ कर कहती है––आपने मुझे तो कुछ नहीं बताया। मुझे उसी तरह बता दीजिए, जैसे आपने मेरी सहेलियों को बताया है। ज्योतिषी झुँझलाकर कहते हैं। तू प्रेम को छोड़कर धन के पीछे दौड़ेगी; पर तेरा उद्धार प्रेम ही से होगा। यह कहकर ज्योतिषीजी अन्तर्धान हो गये और मनोरमा खड़ी रोती रह गयी।

यही विचित्र दृश्य देखते-देखते मनोरमा की आँखें खुल गयी। उसकी आँखों में अभी तक आँसू बह रहे थे। सामने उसकी भावज खड़ी कह रही थी––घर मे चलो, बीवी! मुझसे क्यों इतना भागती हो? क्या मैं कुछ छीन लूँगी? और गुरूसेवक लैम्प के सामने बैठे तजबीज़ लिख रहे थे। मनोरमा ने भावज से पूछा––भाभी, क्या मैं सो गयी थी? अभी तो शाम हुई है।

गुरुसेवक ने कहा––शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं।

मनोरमा––तो आपने तजवीज़ लिख डाली होगी?

गुरुसेवक––बस, जरा देर में खत्म हुई जाती है।

मनोरमा ने काँपते हुए स्वर में कहा––आप यह तजवीज़ फाड़ डालिए।

गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछा––क्यों, फाड़ क्यों डालूँ?

मनोरमा––यों ही! आपने इस मुकदमे का जिक्र ऐने बेमौके कर दिया कि राजा साहब नाराज हो गये होंगे। मुझे चक्रधर से कुछ रिश्वत तो लेनी नहीं है। वह तीन वर्ष की जगह तीस वर्ष क्यों न जेल में पढ़े रहें। पुण्य और पाप आपके सिर। मुझसे कोई मतलब नहीं।