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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१६०

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[कायाकल्प
 

हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं, पर मुख पर एक हल्की सी मुसकराहट खेल रही थी। अहल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसकी आँखो से वे अख्तियार आँसू निकल आये। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबरायी सी उठकर खड़ी हो गयी। अब दो-के दोनों खड़े हैं, दोनों के मन मे हजारों बातें हैं, उद्गार पर उद्गार उठते हैं, दोनों एक दूसरे को कनखियों में देखते हैं, जिनमें प्रेम, आकांक्षा और उत्सुकता की लहरें-सी उठ रही हैं, पर किसी के मुंह से शब्द नहीं निकलता। अहल्या सोचती है, क्या पूछूँ, इनका एक-एक अग अपनी दशा आप सुना रहा है। उसकी आँखों में बार-बार आँसू उमड़ पाते हैं, पर पी जाती है। चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूँ, इसका एक-एक अग इसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है। बार-बार ठंढी साँसे खीचते हैं, पर मुँह नहीं खुलता। वह माधुर्य कहाँ है, जिस पर ऊषा की लालिमा बलि जाती थी? वह चपलता कहाँ है, वह सहास छवि कहाँ है, जो मुखमण्डल को बलाएँ लेती थी। मालूम होता है, बरसों की रोगिणी है। आह! मेरे ही कारण इसकी नयह दशा हुई है। अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही बचें। किन शब्दों में दिलासा दूं, क्या कहकर समझाऊँ।

इसी असमंजस और कण्ठावरोध की दशा में खड़े खडे दोनों को १० मिनट हो गये। शायद उन्हें खयाल ही न रहा कि मुलाकात का समय केवल २० मिनट है। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया पायी, घड़ी देखकर बोली––तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे? दस मिनट गुजर गये, केवल दस मिनट और बाकी हैं।

चक्रधर मानो समाधि से जाग उठे। बोले––अहल्या, तुम इतनी दुबली क्यों हो? बीमार हो क्या?

अहल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा––नहीं तो, मैं बिलकुल अच्छी हूँ। आप अलबत्ता इतने दुबले हो गये हैं कि पहचाने नहीं जाते।

चक्रधर––खैर, मेरे दुबले होने के तो कारण हैं, लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली ना रही हो? कम-से-कम अपने को इतना तो बनाये रखो कि जब मैं छूटकर आऊँ, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिये नहीं, तो मेरे लिए तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी ही चाहिए। अगर तुमने इसी भाँति घुल घुलकर प्राण दे दिये, तो शायद जेल से मेरी भी लाश ही निकले। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि तुम अबसे अपनी ज्यादा फिक्र रखोगी। मेरी ओर से तुम निश्चिन्त रहो। मुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं है। बड़ी शान्ति से दिन कट रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि मेरे आत्म-सुधार के लिए इस तपस्या की बड़ी जरूरत थी। मैंने अँधेरी कोठरी में जो कुछ पाया, वह पहले प्रकाश में रहकर न पाया था। मुझे अगर उसी कोठरी में सारा जीवन बिताना पड़े, तो भी मैं न घबराऊँगा। हमारे साधु सन्त अपनी इच्छा से जीवन-पर्यन्त कठिन से कठिन तपस्या करते हैं। मेरी तपस्या उनसे कहीं सरस और सुसाध्य है। अगर दूसरों ने मुझे इस संयम का अवसर दिया, तो मैं उनसे बुरा क्यों मानू? मुझे तो उनका उपकार मानना चाहिए।