पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८४
[कायाकल्प
 

अन्तर नहीं होता।

यह कहकर उसने मंगला के गले में बाहें डाल दी और प्रेम से सने हुए शब्दों में बोली––देख लेना, हम तुम कैसे मजे से गाती-जाती है। बोलो, आओगी न?

मंगला माता की ओर देखा और इशारा पाकर बोली––जब आपकी इतनी कृपा है, तो क्यों न आऊँगी?

मनोरमा––कृपा और दया की बात करने के लिए मैं तुम्हें नहीं बुला रही हूँ। ऐसी बातें सुनते-सुनते ऊब गयी हूँ। सहेलियों की भाँति गाने बजाने, हंसने बोलने के लिए बुलाती हूँ। वहाँ सारा घर आदमियों से भरा हुआ है; पर एक भी ऐसा नहीं, जिसके साथ बैठकर एक घड़ी हे बोलूँ।

यह कहते कहते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मंगला के गले में डाल दिया और मुसकराकर बोली––देखो अम्माँजी, यह हार इसे अच्छा लगता है न! मुंशीजी बोले––ले मंगला, तूने तो पहले ही मुलाकात में मोतियों का हार मार लिया, लोग मुंह ही ताकते रह गये।

मनोरमा––माता-पिता लड़कियों को देते हैं, मुझे तो आपसे कुछ मिलना चाहिए। मंगला तो मेरी छोटी बहन है। जी चाहता है, इसी वक्त लेती चलूँ। इसकी सूरत बाबू जी से बिलकुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिये जाय, तो पहचानना मुश्किल हो जाय। चलो मंगला, कल हम दोनों आ जायेंगी।

निर्मला––कल हो लेती जाइयेगा।

मनोरमा––मैं समझ गयी। आप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जायगी। तो क्या वहाँ किसी बेगाने घर जा रही है? क्या वहाँ साड़ियों न मिलेंगी?

उसने मंगला का हाथ पकड़ लिया और उसे लिए हुए द्वार की ओर चली। मंगला हिचकिचा रही थी, पर कुछ कह न सकती थी।

जब मोटर चली गयी, तो निर्मला ने कहा––साक्षात् देवी है।

मुन्शी––लल्लू पर इतना प्रेम करती है कि वह चाहता, तो इससे विवाह कर लेता। धर्म ही खोना था, तो कुछ स्वार्थ से खोता। मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं तो कहाँ आकर गिरा उस कँगली लड़की पर, जिसके माँ बाप का भी पता नहीं।

निर्मला––(व्यंग्य से) वाह वाह। क्या लाख रुपए की बात कही है। ऐसी बहू घर में आ जाय, लाला, तो एक दिन न चले। फूल सूंघने ही में अच्छा लगता है, खाने में नहीं! गरीबों का निबाह गरीबों ही में होता है।

मुन्शी––प्रेम बड़ों बड़ों का सिर नीचा कर देता है।

निर्मला––न जी जलाओ। वे बात-की बात करते हो। तुम्हारे लल्लू ऐसे ही तो बड़े खूबसूरत हैं। सिर में एक बाल न रहता। ऐसी औरतों को प्रसन्न रखने के लिए धन चाहिए। प्रभुता पर मरने वाली औरत है।

दस बज रहे थे। मुन्शीजी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के फूले न समाते थे।