लल्लु को रियासत में कोई अच्छी जगह मिल जायगी, फिर पाँचों अँगुली घी में हैं। अब मुसीबत के दिन गये। मारे खुशी के खाया भी न गया। जल्दी से दो-चार कौर खाकर बाहर भागे और अपने इष्ट-मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रातःकाल शहर में नोटिस बाँटी जाय और सेवा समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।
लेकिन निर्मला उदास थी। मनोरमा से उसे न जाने क्यों एक प्रकार का भय हो रहा था।
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राजा विशालसिंह की मनोवृत्तियाँ अब एक ही लक्ष्य पर केन्द्रित हो गयी थीं और वह लक्ष्य था-मनोरमा। वह उपासक थे, मनोरमा उपास्य थी; वह सैनिक थे; मनोंरमा सेनापति थी; वह गेंद थे, मनोरमा खिलाड़ी थी। मनोरमा का उनके मन पर, उनकी आत्मा पर सम्पूर्ण आधिपत्य था। वह अब मनोरमा ही की आँखों से देखते, मनोरमा ही के कानों से सुनते और मनोरमा ही के विचार से सोचते थे। उनका प्रेम सम्पूर्ण आत्म-समर्पण था। मनोरमा ही की इच्छा अब उनकी इच्छा है, मनोरमा हो के विचार अब उनके विचार हैं। उनके राज्य विस्तार के मन्सूबे गायब हो गये। धन से उनको कितना प्रेम था! वह इतनी किफायत से राज्य का प्रबन्ध करना चाहते थे कि थोड़े दिनों में रियासत के पास एक विराट कोप हो जाय। अब वह हौसला नहीं रहा। मनोरमा के हाथों जो कुछ खर्च होता है, वह श्रेय है। अनुराग चित्त की वृत्तियों की कितनी काया-पलट कर सकता है।
अब तक राजा विशालसिंह का जिन स्त्रियों से साबिका पड़ा था, वे ईर्ष्याद्वेष, माया-मोह और राग-रंग में लिप्त थीं। मनोरमा उन सबो से भिन्न थी। उसमें सांसारिकता का लेश भी न था। न उसे वस्त्राभूषणों से प्रेम, न किसी से ईष्या या द्वेष। ऐसा प्रतीत होता था कि वह स्वर्ग लोक की देवी है। परोपकार में उसका ऐसा सच्चा अनुराग था कि पग-पग पर राजा साहब को अपनी लघुता और क्षुद्रता का अनुभव होता था और उस पर उनकी श्रद्धा और भी दृढ़ होती जाती थी। रियासत के मामलों या निज के व्यवहारों में जब वह कोई ऐसी बात कर बैठते, जिसमें स्वार्थ, और अधिकार के दुरुपयोग या अनम्रता की गन्ध आती हो, तो उन्हें यह जानने में देर न लगती थी कि मनोरमा की भृकुटी चढ़ी हुई है और उसने भोजन नहीं किया। फिर उन्हें उस बात के दुहराने का साहस न होता था। मनोरमा की निर्मल कीर्ति अज्ञात रूप से उन्हें परलोक की ओर खींचे लिये जाती थी। उसके समीप पाते ही उनकी वासना लुप्त और धार्मिक कल्पना सजग हो जाती थी। उसकी बुद्धि प्रतिभा पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता था कि वह जो कुछ करती थी, उन्हें सवोचित और श्रेयस्कर जान पढ़ता था। वह अगर उनके देखते हुए घर में भाग लगा देती, तो भी वह उने निर्दोष ही समझते। उसमें भी उन्हें शुभ और कल्याण ही की सुवर्ण-रेखा दिखायी देती। रियासत