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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१७२

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[कायाकल्प
 

में असामियों से कर के नाम पर न जाने कितनी बेगार ली जाती थी, वह सब रानी के हुक्म से बन्द कर दी गयी ओर रियासत को लाखों रुपये की क्षति हुई पर राजा साहब ने जरा भी हस्तक्षेप नहीं किया। पहले जिले के हुक्काम रियासत में तशरीफ़ लाते, तो रियासत में खलबली मच जाती थी, कर्मचारी सारे काम छोड़कर हुक्काम को रसद पहुंचाने मे मुस्तैद हो जाते थे। हाकिम को निगाह तिरछी देकर राजा कॉप जाते थे। पर अब किसी को चाहे वह सूबे का लाट ही क्यों न हो, नियमों के विरुद्ध एक कदम रखने की भी हिम्मत न पढ़ती थी। जितनी धांधलियाँ राज्य-प्रथा के नाम पर सदैव से होती पाती थी, वह एक एक करके उठती नाती थीं, पर राजा साहब को कोई शंका न थी।

राजा साहब की चिर संचित पुत्र लालसा भी इसे प्रेम तरङ्ग में मग्न हो गयी। मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान् अभिलाषा भी अर्पित कर दी। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी वस्तु की इच्छा ही न रही। उसके सामने और भी सभी चीजें तुच्छ हो गयीं। एक दिन, केवल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहा था––मुझे अब केवल एक इच्छा और है। ईश्वर मुझे एक पुत्र प्रदान कर देता, तो मेरे सारे मनोरथ पूरे हो जाते। मनोरमा ने उस समय जिन कोमल शब्दों में उन्हें सान्त्वना दी थी, वे अब तक कानों में गूंज रहे थे नाथ, मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है। यश और कीर्ति भी कर्मों हो से प्राप्त होती है। सन्तान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए गढ़ी है। बड़ी बड़ी आत्माएँ, जो और सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ, ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं। सुख के मार्ग मे इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। जब इच्छा दुःख का मूल है, तो सबसे बड़े दुख का मूल क्यों न होगी? ये वचन मनोरमा के मुख से निकलकर अमर हो गये थे।

सबसे विचित्र बात यह थी कि राजा साहब की विषय वासना सम्पूर्णतः लोप हो गयी थी। एकान्त में बैठे हुए वह मन में भाँति-भाँति की मृदु कल्पनाएँ किया करते लेकिन मनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर श्रद्धा का अनुराग छा जाता, मानों किसो देव मन्दिर मे आ गये हों। मनोरमा उनका सम्मान करती, उन्हें देखते ही खिल जाती, उनसे मीठी मीठी बातें करती, उन्हें अपने हाथो से स्वादिष्ट पदार्थ बनाकर खिलाती, उन्हें पंखा झलती। उनकी तृप्ति के लिए वह इतना हो काफी समझती थी। कविता में और सब रस थे, केवल शृंगार रस न था। वह बाँकी चितवन, जो मन को हर लेती है, वह हाव-भाव, जो चित्त को उद्दीप्त कर देता है, यहाँ कहाँ? सागर के स्वच्छ निर्मल जल में तारे नाचते हैं, चाँद थिरकता है, लहरें गाती हैं। वहाँ देवता सन्ध्योपासना करते हैं, देवियाँ स्नान करती है, पर कोई मैले कपड़े नहीं धोता। संगमरमर की जमीन पर थूकने की कुरुचि किस में होगी? आत्मा को स्वयं ऐसे घृणास्पद व्यवहार से संकोच इस भाँति छः महीने गुजर गये।