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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१८३

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[ कायाकल्प
 


नमाज की जगह देवताओं की दुर्गति । ख्वाजा साहब ने फतवा दिया-जो मुसलमान किसी हिन्दू औरत को निकाल ले जाय, उसे एक हजार हजों का सवाब होगा। यशोदानन्दन ने काशी के पण्डितों की व्यवस्था मँगवायी कि एक मुसलमान का वध एक लाख गौ-दानो से श्रेष्ठ है।

होली के दिन थे । गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनायी गयी थी। वे नयी रोशनी के हिन्दू भक्त, जो रग को भूखा मेङिया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्र-धनुष बने हुए थे । सयोग से एक मियाँ साहब मुर्गी हाथ में लटकाये कहीं से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो चार छीटे पड़ गये । बस, गजब ही तो हो गया, आफत ही तो आ गयो । सीधे जामे मस- जिद पहुँचे और मीनार पर चढकर बाँग दी-'ऐ उम्मते रसूल ! आज एक काफिर के हाथों मेरे दीन का खून हुया है। उसके छीटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए हैं। या तो काफिरों से इस खून का बदला लो. या मैं मीनार से गिरकर नबी की खिदमत में फरि- याद सुनाने जाऊँ। बोलो, क्या मजूर है ? शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मसजिद के नीचे नजर आयेगी।'

मुसलमानों ने जब ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गयीं । दीन का जोश सिर पर सवार हो गया। शाम होते-होते दस हजार आदमी सिरों से कफन लपेटे, तल वारै लिये, जामे मसजिद के सामने आकर दीन के खून का बदला लेने के लिए जमा हो गये।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिन्दुओं के होश उड़ गये । होली का नशा हिरन हो गया । पिचकारियाँ छोड़ छोड़ लोगों ने लाठियाँ सॅमाली, लेकिन यहाँ कोई जामे मसजिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश | सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के | लख- नऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुसलिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला | इतनी जल्द कोई इन्तजाम न हो सकता था। अगर वह यही समय हिन्दुओं को सगठित करने में लगाते, तो शायद बराबर का जोड़ हो जाता, लेकिन वह हुक्काम पर आशा लगाये बैठे रहे। और अन्त में जब वह निराश होकर उठे, तो मुसलिम वीर धावा बोल चुके थे । वे 'अली! अली ।' का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गये। फिर क्या था । सैकड़ों आदमी, 'मारो!' कहते हुए लपके । बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये। सवाल जवाब कौन करता । उन पर चारों तरफ से वार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शान्त हो जायँ, तो क्यों किसी की जान लूँ । अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।