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कायाकल्प]
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यह आहुति पाकर अग्नि और भी भड़की। खून का मजा पाकर लोगों का जोश हो गया। अब फतह का दरवाजा खुला हुआ था। हिन्दू मुहल्लों में द्वार बन्द हो। बेचारे कोठरियों में बैठे जान की खैर मना रहे थे, देवताओं से विनती कर रहे कि यह संकट हरो। रास्ते में जो हिन्दू-मिला वह पिटा, घर लुटने लगे। 'हाय-हाय' का शोर मच गया। दीन के नाम पर ऐसे ऐसे कर्म होने लगे, जिन पर पशुओं को भी लज्जा आती, पिशाचों के भी रोयें खड़े हो जाते।

लेकिन बाबू यशोदानन्दन के मरने की खबर पाते ही सेवादल के युवकों का खून खौल उठा। आसन पर चोट-पहुँचते ही अड़ियल टट्टू और गरियाल बैल भी सॅभल जाते हैं। घोड़ा कनौतियाँ खड़ी करता है, बैल उठ बैठता है। यशोदानन्दन का खून हिन्दुओं के लिए आसन की चोट थी। सेवा-दल के दो सौ युवक तलवार लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्लों में घुसे। दो-चार पिस्तौल और बन्दूकें भी खोज निकाली गयीं। हिन्दू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लो में वही हिन्दू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया। वे ही सेवा-व्रतधारी युवक, जो दीनों पर जान देते थे, अनाथों को गले लगाते थे और रोगियों की सुश्रुषा करते थे, इस समय निर्दयता के पुतले बने हुए थे। पाशविक वृत्तियों ने कोमल वृत्तियों का संहार कर दिया था। उन्हें न तो दीनों पर दया आती थी, न अनाथों पर। हँस हँसकर भाले और छुरे चलाते थे, मानों लड़के गुड़ियाँ पीट रहे हों। उचित तो यह था कि दोनों दलों के योद्धा आमने-सामने खड़े हो जाते और खूब दिल के अरमान निकालते; लेकिन कायरों की वीरता और वीरो की वीरता में बड़ा अन्तर है।

सहसा खबर उड़ी कि यशोदानन्दन के घर में आग लगा दी गयी है और दूसरे घरों में भी भाग लगायी जा रही है। सेवादल वालों के कान खड़े हुए। यहाँ उनकी पैशाचिकता ने भी हार मान ली। तय हो गया कि अब या तो वे ही रहेंगे, या हमी रहेंगे। दोनो अब इस शहर में नहीं रह सकते। अब निपट ही लेना चाहिए, जिसमें हमेशा के लिए बाधा दूर हो जाय। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहाँ यह बढ़वानल दहक रहा था। मिनटों की राह पलों में कटी। रास्ते में सन्नाटा था। दूर ही से ज्वाला-शिखर आसमान से बातें करते दिखायी दिया। चाल और भी तेज की और एक क्षण में लोग अग्नि-कुण्ड के सामने जा पहुँचे। देखा, तो वहाँ किसी मुसलमान का पता नहीं आग लगी है। लेकिन बाहर की ओर। अन्दर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था। बागेश्वरी एक कोठरी मे द्वार बन्द किये बैठी थी। इन्हे देखते हो वह रोती हुई बाहर निकल आयी और बोली––दाय मेरी अहल्या! अरे दौड़ो, उसे ढूँढों, पापियों ने न-जाने उसकी क्या दुर्गति को। हाय! मेरी बची!

एक युवक ने पूछा––क्या अहल्या को उठा ले गये?

बागेश्वरी––हाँ भैया! उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल;