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कायाकल्प ]
२०१
 


थी। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मरजी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लङती रहती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी । हम दोनों एक ही मकतब में पढे, एक ही स्कूल में तालीम पायी, एक ही मैदान में खेले । यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्माँजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थी, इसकी अम्माँजान मुझे इससे ज्यादा | उस जमाने की तसवीर आज आँखों के सामने फिर रही है। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अजाम होगा। यह मेरा प्यारा यशोदा है, जिसकी गरदन में वाहें डालकर मै बागों की सैर किया करता था। हमारी सारी दुश्मनो पसे-पुश्त होती थी। रूबरू मारे शर्म के हमारी आँखें ही न उठती थीं। आह ! काश मालूम हो जाता कि किस बेरहम ने मुझ पर यह कातिल वार किया ! खुदा जानता है, इन कमजोर हाथों से उसकी गर्दन मरोड़ देता।

एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं ।

ख्वाजा-ले जाओ भई, ले जाओ; मै भो साथ चलूँगा। मेरे कन्धा देने में कोई हरज है ! इतनी रियायत तो मेरे साथ करनी ही पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।

युवक-अहल्या को भी लोग उठा ले गये। माताजी ने आपसे ..

ख्वाजा--क्या अहल्या । मेरी अहल्या को ! कब ?

युवक-‌आज ही । घर में आग लगाने से पहले।

ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहल्या का पता न लूँगा, मुझे -दाना पानी हराम है । तुम लोग लाश ले जायो, मै अभी आता हूँ। सारे शहर को खाक छान डालूँगा, एक एक घर में जाकर देखूँगा; अगर किसी वेदीन बदमाश ने मार नहीं डाला है, तो जरूर खोज निकालूँगा । हाय मेरी बच्ची! उसे मैने मेले में पाया था। खड़ी रो रही थी ! कैसी भोली-भोली, प्यारी-प्यारी बच्ची यो ! मैंने उसे छाती से लगा लिया था और लाकर भाभी की गोद में डाल दिया था। कितनी वातमीज, वाशकर, हसीन लड़की थी। तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊंँगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना मुझमे मलाल न रखें। यशोदा नहीं हैं, लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी । कह देना, महमूद या तो अहल्या को खोज निकालेगा, या मुँह में कालिख लगाकर ढूब मरेगा।

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठायी और बाहर निकल गये ।


२६

चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति मांगी । मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही मे अहल्या के सरल, लिग्ध स्नेह को शीतल छाया में शान्त हो सकती थी। उन्हें अपने उपर विश्वास न था। यह जिन्दगी-भर मनोरमा को देखा करते और मन में कोई बात न आती; लेकिन मनो-