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[ कायाकल्प
 


अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी । ज्याही दुष्टों ने घर में कदम रखा, बाहर निकलकर उन्हें समझाने लगी । हाय ! उसकी बातों को न भूलूँगी ।आप तो गये ही थे, उसका भी सर्वनाश किया। नित्य समझाती रही, इन झगड़ों में न पड़ो। न मुसलमानों के लिए दुनिया में कोई दूमरा ठोर-ठिकाना है, न हिन्दुओं के लिए । दोनों इसी देश में रहेंगे और इसी देश मे मरेंगे। फिर आपस में क्यो लड़े मरते हो, क्यों एक दूसरे को निगल जाने पर तुले हुए हो ? न तुम्हारे निगले वे निगले जायेंगे, न उनके निगले तुम निगले जानोगे, मिल-जुलकर रहो, उन्हें बड़े होकर रहने दो, तुम छोटे ही होकर रहो, मगर मेरी कौन सुनता है। स्त्रियाँ तो पागल हो जाती है, यों ही भूँका करती हैं। मान गये होते, तो आज क्यों यह उपद्रव होता । आप जान से गये, बच्ची भी हर ली गयी, और न जाने क्या होना है। जलने दो घर, घर लेकर क्या करना है, तुम जाकर मेरी बच्ची को तलाश करो । जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उनका पता लगायें । हाय ! एक दिन वह था कि दोनों आदमियों मे दाँत कटी रोटी थी। ख्वाजा साहब उनके साथ प्रयाग गये थे और अहल्या को उन्होंने पाया था। आज यह हाल है ! कहना, तुम्हें लाज नहीं आती ? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद मे सौंपा था, जिसके विवाह में पाँच हजार खर्च करनेवाले थे, उसकी उन्हीं के पिछल गुओं के हाथों यह दुर्गति । हमसे अब उनकी क्या दुश्मनी । उनका दुश्मन तो परलोक सिधारा ! हाय भगवान | बहुत से आदमी मत जाओ । चार आदमी काफी हैं। उनकी लाश भी ढूँ ढों। कही आस ही पास होगी। घर से निकलते ही तो दुष्टों से उनका सामना हो गया था।

बागेश्वरी तो यह विलाप कर रही थी, बाहर अग्नि को शान्त करने का यत्न किया जा रहा था, लेकिन पानी के छींटे उस पर तेल का काम करते थे। बारे फायर-इञ्जिन समय पर आ पहुंचा और अग्नि का वेग कम हुआ । फिर भी लपटें किसी साँप की तरह जरा देर के लिए छिपकर फिर किसी दूसरी जगह ना पहुँचती थीं। सन्ध्या समय जाकर आग बुझी ।

उघर लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि मुंशी यशोदानन्दन की लाश रखी हुई है और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले- तुम समझते होगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और वेटा भी इससे ज्यादा अजीन नहीं। अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता तो यशोदा उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता। शायद मैं भी उसे खतरे में देखकर अपनी जान की परवा न करता । फिर भी हम दोनों की जिन्दगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे और आज उसका यह अजाम हुआ। खुदा गवाह है, मैंने हमेशा इत्तहाद की कोशिश की । अब भी मेरा यह ईमान है कि इत्तहाद ही से इस बदनसीब कौम की नजात होगी। यशोदा भी इत्तहाद का उतना ही हामी था, जितना मैं। शायद मुझसे भी ज्यादा, लेकिन खुदा जाने वह कौन सी ताकत थी, जो हम दोनों को बरसरेजग रखती