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[कायाकल्प
 

आपमें श्रद्धा रखती हूँ।

चक्रधर का मुख मलिन हो गया। सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया। वन वृक्षों सा लहलहाता हुआ हृदय मरु-भूमि सा दिखायी दिया। निराश भाव से बोले—मैं तो और ही सोच रहा था, अहल्या!

अहल्या—तो आप भूल कर रहे थे। मैंने किसी पुस्तक में देखा था कि प्रेम हृदय के समस्त सद्भावों का शान्त, स्थिर, उद्गारहीन समावेश है। उसमें दया और क्षमा, श्रद्धा और वात्सल्य, सहानुभूति और सम्मान, अनुराग और विराग, अनुग्रह और उपकार सभी मिले होते हैं। सम्भव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम पात्री बन जाऊँ, किन्तु इतनी जल्द सम्भव नहीं। इनमें से कोई एक भाव प्रेम को अंकुरित कर सकता है, उसका विकास अन्य भावों के मिलने ही से होता है। आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का। हाँ, सम्मान और भक्ति दया की अपेक्षा प्रेम से कहीं निकटतर है, बल्कि यों कहिए कि ये ही भाव सरस होकर प्रेम का बाल रूप धारण कर लेते हैं।

अहल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गये। उन्होंने कभी यह अनुमान ही न किया था कि उसके विचार इतने उन्नत और उदार हैं। उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायगा, किन्तु अहल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया, और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ। इसके प्रेम का आदर्श कितना ऊँचा है। इसकी दृष्टि में यह व्यवहार वासनामय जान पड़ता होगा। इस विचार ने उनके प्रेमोद्गारों को शिथिल कर दिया। अवाक् से खड़े रह गये।

सहसा अहल्या ने कहा—मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जायँगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूँ, लेकिन आपके तिरस्कार और अपमान का ख्याल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा ने मुझे अब तक जीवित रखा है। मैं आपको अपनी कालिमा से कलुषित करने के पहले मर जाना ही अच्छा समझती हूँ।

चक्रधर की आँखे करुणार्द्र हो गयीं। बोले—अहल्या, ऐसी बातें न करो। अगर संसार में अब भी कोई ऐसा क्षुद्र प्राणी है, जो तुम्हारी उज्ज्वल कीर्ति के सामने सिर न झुकाये, तो वह स्वयं नीच है। वह मेरा अपमान नहीं कर सकता। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता पिता के विरोध की परवा नहीं करता। तुम इन बातों को भूल जाओ। हम और तुम प्रेम का आनन्द भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं। ऐसी कोई विपत्ति नहीं है, जिसे प्रेम न टाल सके। मैं तुमसे विनती करता हूँ, अहल्या, कि ये बातें फिर जबान पर न लाना।

अहल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की वह दाह, जो