रहती हैं, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आँखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो, जितनी पहले थी। तुम्हारी अग्नि परीक्षा हो चुकी है। अब विलम्ब न करो। ईश्वर ने चाहा, तो कल हम उस प्रेम सूत्र में बँध जायँगे जिसे काल भी नहीं तोड़ सकता, जो अमर और अभेद्य है।
अहल्या कई मिनट तक चक्रधर के कन्धे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली―एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे? सच्चे दिल से कहना?
चक्रधर―क्या पूछती हो, पूछो?
अहल्या―तुम केवल दया-भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो, या प्रेम भाव से?
यह प्रश्न से स्वयं लज्जित होकर उसने फिर कहा―बात वेढगी-सी है; लेकिन मैं मूर्ख हूँ, क्षमा करना, यह शंका मुझे बार-बार होती है। पहले भी हुई थी और आज और भी बढ़ गयी है।
चक्रधर का दिल बैठ गया। अहल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूँ। बोले―तुम्हें क्या जान पड़ता है अहल्या?
अहल्या―मै जानती, तो आपसे क्यों पूछती?
चक्रधर―अहल्या, तुम इन बातों से मुझे धोखा नहीं दे सकतीं। चील को चाहे मास की बोटी न दिखायी दे, चिउँटी को चाहे शक्कर की सुगन्ध न मिले; लेकिन रमणी का एक-एक रोयाँ पञ्चेन्द्रियों को भाँति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किये विना नहीं रहता। मैं एक गरीब आदमी हूँ। दया और धर्म और उद्धार के भावों का मुझसे लेश भी नहीं। केवल इतना ही कह सकता हूँ कि तुम्हें पाकर मेरा जीवन सफल हो जायगा।
अहल्या ने मुसकराकर कहा―तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ।
चक्रधर―अवश्य, उससे ज्यादा, जितना मैं स्वयं जानता हूँ।
अहल्या―तो साफ कह दूँ?
चक्रधर ने कातर भाव से कहा―कहो, सुनूँ।
अहल्या―तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।
चक्रधर―अदल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।
अहल्या―जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमे नहीं हैं, उस पर हाथ न चढ़ाऊँगा। मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं। मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूँ।
चक्रधर―अगर यही प्रश्न मैं तुमसे करता, तो तुम क्या जवाब देतीं, अहल्या?
अहल्या―तो साफ साफ कह देती कि मैं प्रेम से अधिक आपका आदर करती हूँ,