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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/१९७

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[कायाकल्प
 

बहू आयी है। वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है। भाई-बन्दों के साथ रस्मरिवाज मानना ही पड़ता है।

यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। अहल्या ने धीरे से उतरकर उनके चरणों पर सिर रख दिया। उसकी आँखों से श्रद्धा और आनन्द के आँसू बहने लगे। मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग-रूम में बैठाकर बोले—किसी को अन्दर मत आने देना। मैंने साहब से कह दिया है। मैं कोई घण्टे-भर में आऊँगा। तुमसे बड़ी भूल हुई कि मुझे एक तार न दे दिया। अब बेचारी यहाँ परदेशियों की तरह घण्टों बैठी रहेगी। तुम्हारा कोई काम लड़कपन से खाली ही नहीं होता। रानी कई बार आ चुकी हैं। आज चलते चलते ताकीद कर गयी थीं कि बाबूनी आ जायँ, तो मुझे खबर दीजिएगा। मैं स्टेशन पर उनका स्वागत करूँगी और बाबूजी को साथ लाऊँगी। सोचो, उन्हें कितनी तकलीफ होगी।

चक्रधर ने दबी जबान से कहा—उन्हें तो आप इस वक्त तकलीफ न दीजिए, और आपको भी धूमधाम करने के लिए तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं। सवेरे तो सबको मालूम हो ही जायगा।

मुंशीजी ने लकड़ी सँभालते हुए कहा—सुनती हो बहूजी, इनकी बातें? सवेरे लोग जानकर क्या करेंगे? दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आयी?

मुंशीजी चले गये, तो अहल्या ने चक्रधर को आड़े हाथों लिया। ऐसे देवता-पुरुष के साथ तुम अकारण ही कितना अनर्थ कर रहे थे। मेरा तो जी चाहता था कि घण्टों उनके चरणों पर पड़ी हुई रोया करूँ।

चक्रधर लज्जित हो गये। इसका प्रतिवाद तो न किया, पर उनका मन कह रहा था कि इस वक्त दुनिया को दिखाने के लिए पिताजी कितना ही धूम-धाम क्यों न कर लें, घर में कोई-न-कोई गुल खिलेगा जरूर। उन्हें यहाँ बैठते अनकुस मालूम होता था। सारी रात का बखेड़ा हो गया। शहर का चक्कर लगाना पड़ेगा, घर पहुँचकर न जाने कितनी रस्में अदा करनी पड़ेंगी, तब जाके कहीं गला छूटेगा। सबसे ज्यादा उलझन की बात यह थी कि कहीं मनोरमा भी राजसी ठाठ-बाट से न आ पहुँचे। इस शोरगुल से फायदा ही क्या?

मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखायी दी। चक्रधर सहसा चौंक पड़े और कुरसी से उठकर खड़े हो गये। मनोरमा के सामने ताकने की उनकी हिम्मत न पड़ी, मानो कोई अपराध किया हो। मनोरमा ने उन्हें देखते ही कहा—वाह बाबूजी, आप चुपके चुपके बहू को उड़ा लाये और मुझे खबर तक न दी! मुंशीजी न कहते, तो मुझे मालूम ही न होता। आपने तो अपना घर बसाया, मेरे लिए भी कोई सौगात लाये?

चक्रधर ने मनोरमा की ओर लज्जित होकर देखा, तो उसका मुख उड़ा हुआ था।