सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२१९
 

तो जहर खाकर मर जाना चाहिए। कम-से-कम तुम्हारी ये जली-कटी बातें तो न सुनने में न आयेंगी।

रोहिणी ने आग्नेय नेत्रों से राजा साहब की ओर देखा, मानो वह उसकी ज्वाला से उन्हें भस्म कर देगी, मानो उसके शरों से उन्हें बेध डालेगी, और लपककर पानदान को ठुकराती, लोटे का पानी फिराती, वहाँ से चली गयी।

मनोरमा ने सहृदय-भाव से कहा—श्राप व्यर्थ ही इनके मुँह लगे। मैं आपके साथ न जाऊँगी।

राजा—नोरा, कभी-कभी मुझे तुम्हारे ऊपर भी क्रोध आता है। भला, इन गँवारिनों के साथ रहने में क्या आनन्द आयेगा? यह सब मिलकर तुम्हारा जीना दूभर कर देंगी।

राजा साहब बहुत देर तक समझाया किये, पर मनोरमा ने एक न मानी। रोहिणी की बातें अभी तक उसके हृदय के एक-एक परमाणु में व्याप्त था। उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं है, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे। रोहिणी केवल उन भावों को प्रकट कर देने की अपराधिनी है। इस सन्देह और लांछन का निवारण यहाँ सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था। अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा—तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ। तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी न रहा जायगा।

मनोरमा ने निश्चयात्मक भाव से कहा—जैसी आपकी इच्छा।

एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखायी दिये। चेहरा उतरा हुआ था, पाजामे का इजारबन्द नीचे लटकता हुआ। आँगन में खड़े होकर बोले—रानीजी, आप कहाँ हैं? जरा कृपा करके आइएगा, या हुक्म हो, तो मैं ही आऊँ।

राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा—क्या है, यहीं चले आइए। आपको इस वक्त आने की क्या जरूरत थी? सब लोग यहीं चले आये, कोई वहाँ भी तो चाहिए।

मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन भाव से बोले—क्या करूँ; हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है। हुजूर से न रोऊँ, तो किससे रोऊँ! घर तबाह हुआ जाता है। लल्लू न जाने क्या करने पर तुला है।

मनोरमा ने सशंक होकर पूछा—क्या बात है, मुंशीजी? अभी तो आज बाबूजी वहाँ मेरे पास आये थे, कोई भी नयी बात नहीं कही।

मुंशी—वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा। मुझमे भी कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन आज प्रयाग जाने को तैयार बैठा हुआ है। बहू को भी साथ लिये जाता है। कहता है, अब यहाँ न रहूँगा।

मनोरमा—आपने पूछा नहीं कि क्यों जा रहे हो? जरूर उन्हें किसी बात से रंज पहुँचा होगा, नहीं तो वह बहू को लेकर न जाते। बहू ने तो कहीं उनके कान नहीं भर दिये?

मुंशी—नहीं हुजूर, वह तो साक्षात् लक्ष्मी है। मैंने तो अपनी जिन्दगी-भर में ऐसी