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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२०६

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कायाकल्प]
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कौन है? इतने दिन तो जी लिये, दो-चार साल और जिये तो क्या?

मुन्शी—रानीजी, आप जले पर नमक छिड़क रही हैं। इतना तो नहीं होता कि चलकर समझा दें, ऊपर से और ताने देती हैं। बहू का आदर-सत्कार करने में कोई बात उठा नहीं रखते, एक उसका छुआ न खाया, तो इसमें रूठने को क्या बात है? हम कितनी ही बातों से दब गये, तो क्या उन्हें एक बात में भी नहीं दबना चाहिए?

मनोरमा—तो जाकर दबाइए न, मेरे पास क्यों दौड़े आये हैं? मेरी राय अगर पूछते हैं, तो जाकर चुपके से बहू के हाथ से खाना पकवाकर खाइए। दिल से यह भाव बिलकुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊँचे हैं। इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए। जब वह आपकी बहू हो गयी, तो बहू ही समझिए। अगर यह छूतछात का बखेड़ा करना था, तो बहू को लाना ही न चाहिए था। आपकी बहू रूप-रंग में व शील-गुण में किसी से कम नहीं। मैं तो कहती हूँ कि आपकी बिरादरी-भर में ऐसी एक भी स्त्री न होगी। अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पायी। अगर खानपान का ढोंग करना है तो जाकर कीजिए। मैं इस विषय में बाबूजी से कुछ नहीं कह सकती। कुछ कहना ही नहीं चाहती। वह वही कर रहे हैं, जो इस दशा में उन्हें करना चाहिए।

मुन्शीजी बड़ी आशा बाँधकर यहाँ दोड़े आये थे। यह फैसला सुना तो कमर टूटसी गयी। फर्श पर बैठ गये और अनाथ-भाव से माथे पर हाथ रखकर सोचने लगे—अब क्या करूँ? राजा साहब अभी तक इन दोनों आदमियों की बातें सुन रहे थे। अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला। बोले—आपकी बात तो तय हो गयी। अब जरा मेरी भी सुनिए। मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा और रोहिणी में किसी बात पर झड़प हो गयी। रोहिणी का स्वभाव तो आप जानते ही हैं। क्रोध उसकी नाक पर रहता है। न-जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊँगी ही नहीं। कितना समझा रहा हूँ, पर मानती ही नहीं।

मुंशीजी ने मनोरमा की ओर देखकर कहा—इन्हें भी तो लल्लू ने शिक्षा दी है। न वह किसी की मानता है, न यह किसी की मानती हैं।

मनोरमा ने मुस्कराकर कहा—आपको एक देवी के अपमान करने का दण्ड मिल रहा है।

राजा साहब ने कहा—और मुझे?

मनोरमा ने मुँह फेरकर कहा—आपको बहुत-से विवाह करने का।

मनोरमा यह कहती हुई वहाँ से चली गयी। उसे अभी अपने लिए कोई स्थान ठीक करना था, शहर से अपनी आवश्यक वस्तुएँ मँगवानी थीं। राजा साहब मुंशीजी को लिये हुए बाहर आये और सामनेवाले बाग में बेंच पर जा बैठे। मुँशीजी घर जाना चाहते थे, जी घबरा रहा था; पर राजा साहब से आज्ञा माँगते हुए डरते थे (राजा साहब बहुत ही चिन्तित दिखलायी देते थे। कुछ देर तक तो यह सिर झुकाये बैठे रहे, तब गम्भीर भाव से बोले—मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनी? कितनी मीठी चुटकियाँ लेती है। सचमुच बदुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है। मैंने समझा था,