अब दिन आनन्द से कटेंगे और इन चुड़ैलों से पिंड छुट जायगा, पर नोरा ने मुझे फिर उसी विपत्ति में डाल दिया। यहाँ रहकर मैं बहुत दिन जी नहीं सकता। रोहिणी मुझे जीता न छोड़ेगी। आज उसने जिस दृष्टि से मेरी ओर देखा, वह साफ कह देती थी कि वह ईर्ष्या के आवेश में जो कुछ न कर बैठे वह थोड़ा है। उसकी आँखों से ज्वाला-सी निकल रही थी। शायद उसका बस होता, तो मुझे खा जाती। कोई ऐसी तरकीब नहीं सूझती, जिससे नोरा का विचार पलट सके।
मुन्छी—हुजूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी। आप देख लीजिएगा। उनका जी यहाँ से बहुत जल्द उठ जायगा।
राजा—ईश्वर करे आपकी बात सच निकले! आपको देर हो रही हो, तो जाइए। मेरी डाक वहाँ से बराबर भेजवाते रहिएगा, मै शायद वहाँ रोज न आ सकूँगा। यहाँ तो अब नये सिरे से सारा प्रबन्ध करना है।
आधीरात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आयी थी। उस विशाल भवन में, जहाँ सुख और विलास की सामग्रियाँ भरी हुई थीं, उसे अपना जीवन शून्य जान पड़ता था। एक निर्जन, निर्मम वन में वह अकेली खड़ी थी। एक दीपक सामने बहुत दूर पर अवश्य जल रहा था, पर वह जितना ही चलती थी, उतना ही वह दीपक भी उससे दूर होता जाता था। उसने मुन्शीजी के सामने तो चक्रधर को समझाने से इन्कार कर दिया था, पर अब ज्यों ज्यों रात बीतती थी, उनसे मिलने के लिए तथा उन्हें रोकने के लिए उसका मन अधीर हो रहा था। उसने सोचा—क्या अहल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जायँगे? क्या मेरा उनपर कोई अधिकार नहीं? वह जायँगे कैसे! मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी। खींच लाऊँगी। अगर अपने घर में नहीं रह सकते, तो मेरे यहाँ रहने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती है? मैं उनके लिए अपने यहाँ प्रबन्ध कर दूँगी, मगर बड़े निष्ठुर प्रकृति के मनुष्य हैं। आज मेरे पास इतनी देर बैठे अपनी समिति का रोना रोते रहे, फटे मुँह से भी न कहा कि मैं प्रयाग जा रहा हूँ, मानो मेरा उनसे कोई नाता ही नहीं। मुझसे मिलने के लिए उत्सुक तो वह होंगे। पर कुछ न कर सकते होंगे। वह भी बहुत मजबूर होकर जा रहे होंगे। वह अहल्या सचमुच भाग्यवती है। उनके लिए वह कितना कष्ट झेलने को तैयार हैं। प्रयाग में न कोई अपना, न-पराया, सारी गृहस्थी जुटानी पड़ेगी।
यह सोचते ही उसे खयाल आया कि चक्रधर बिलकुल खाली हाथ हैं। पत्नी साथ, खाली हाथ, नयी जगह, न किसीसे राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा। मैंने बड़ी भूल की। मुंशी जी के साथ मुझे चला जाना चाहिए था। बाबूजी मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।
उसने घड़ी की ओर देखा। एक बज गया था। चैत की चाँदनी खिली हुई थी। चारपाई से उठकर आँगन में आयी। उसके मन में प्रश्न उठा—क्यों न इसी वक्त जाऊँ? घण्टे भर में पहुँच जाऊँगी। चाँदनी छिटकी हुई है, डर किस बात का? राजा