लेकिन अधिकांश समय पुस्तक और लेख लिखने में बिताते। उनकी विद्या और बुद्धि अब सेवा के अधीन नहीं, स्वार्थ के अधीन हो गयी। भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धान्त भी बदल गये। बुद्धि का उद्देश्य केवल तत्व-निरूपण और विद्या-प्रसार न रहा, वह धनोपार्जन का मन्त्र बन गया। उस मकान में अब उन्हें कष्ट होने लगा। दूसरा मकान लिया, जिसमें बिजली के पंखे और रोशनी थी। इन नये साधनों से उन्हें लिखने पढ़ने में और भी आसानी हो गयी। बरसात में मच्छरों के मारे कोई मानसिक काम न कर सकते थे। गरमी में तो उस नन्हें-से आँगन में बैठना भी मुश्किल था; काम करने का जिक्र ही क्या। अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे। अहल्या खुद तो कुछ न लिखती; पर चक्रधर की सहायता करती रहती थी। लेखों को साफ करना, अन्य पुस्तकों और पत्रों से अवतरणों को नकल करना उसका काम था। पहले ऊसर की खेती करते थे, जहाँ न धन था, न कीर्ति। अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी। पत्रों के सम्पादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे। लोग इन लेखों को बड़े चाव से पढ़ते थे। भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुन्दर, विषय भी उपयुक्त! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी। उनके लेख भी अधिकांश दार्शनिक होते थे।
पर चक्रधर को अब अपने कृत्यों पर गर्व न था। उन्हें काफी धन मिलता था। यूरप और अमेरिका के पत्रों में भी उनके लेख छपते थे। समाज में उनका आदर भी कम न पर था; सेवा-कार्य में जो सन्तोष और शान्ति मिलती थी, वह अब मयस्सर न थी। अपने दीन, दुखी एवं पीड़ित बन्धुओं की सेवा करने में जो गौरव-युक्त आनन्द मिलता था, वह अब सभ्य समाज की दावतों में न प्राप्त होता था। मगर अहल्या सुखी थी। वह अब सरल बालिका नही, गौरवशील युवती थी—गृह-प्रबन्ध में कुशल, पति-सेवा में प्रवीण, उदार, दयालु और नीति चतुर। मजाल न थी कि नौकर उसकी आँख बचाकर एक पैसा भी खा जाय। उसकी सभी अभिलाषाएँ पूरी होती जाती थीं। ईश्वर ने उसे एक सुन्दर बालक भी दे दिया। रही सही कसर भी पूरी हो गयी।
इस प्रकार पाँच साल गुजर गये।
एक दिन काशी से राजा विशालसिंह का तार पाया। लिखा था—'मनोरमा बहुत बीमार है। तुरन्त आइए। बचने की कम आशा है।' चक्रधर के हाथ से कागज छूट कर गिर पड़ा। अहल्या सँभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते। ऐसा मालूम हुआ, मानो मस्तक पर किसी ने लाठी मार दी हो। आँखों के सामने तितलियाँ सी उड़ने लगीं। एक क्षण के बाद सँभलकर बोले—मेरे कपड़े बक्स में रख दो, मैं इसी गाड़ी से जाऊँगा।
अहल्या—यह हो क्या गया है? अभी तो लालाजी ने लिखा था कि यहाँ सब कुशल है।
चक्रधर—क्या कहा जाय? कुछ नहीं, यह सब गृह कलह का फल है। मनोरमा ने