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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२१७

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[कायाकल्प
 

मजूरी ले लेने में क्या हरज है। यह कम्बल तो कोई शाल नहीं है, जिसे ओढ़ने से संकोच हो। मेरे लिए चादर काफी है। तुम्हें जब रुपए मिलें, तो मेरे लिए एक लिहाफ बनवा देना।

कम्बल रात-भर ज्यों का-त्यों तह किया हुआ पड़ा रहा। सरदी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी; पर कम्बल को छुआ तक नहीं। उसका एक-एक रोयाँ सर्प की भाँति काटने दौड़ता था। एक बार उन्होंने अहल्या की ओर देखा। वह हाथ-पाँव सिकोड़े, चादर सिर से ओढ़े एक गठरी की तरफ पड़ी हुई थी, पर उन्होंने उसे भी वह कम्बल न ओढ़ाया। उनका स्नेह-करुण हृदय रो पड़ा। ऐसा मालूम होता था, मानो कोई फूल तुषार से मुरझा गया हो। उनकी अन्तरात्मा सहस्रों जिह्वाओं से उनका तिरस्कार करने लगी। समस्त ससार उन्हें धिक्कारता हुआ जान पड़ा—तेरी लोक-सेवा केवल भ्रम है, कोरा प्रमाद है। जब तू उस रमणी की रक्षा नहीं कर सकता, जो तुझपर अपने प्राण तक अर्पण कर सकती है, तो तू जनता का उपकार क्या करेगा? त्याग और भोग में दिशाओं का अन्तर है। चक्रधर उन्मत्तों की भाँति चारों ओर देखने लगे कि कोई ऐसी चीज मिले जो इसे ओढ़ा सकूँ, लेकिन पुरानी धोतियों के सिवा उन्हें और कोई चीज न नजर आयी। उन्हें इस समय भीषण मर्म वेदना हो रही थी। अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था। जिस दरिद्रता का उन्होंने सदैव आह्वान किया था, वह इस समय भयंकर शाप की भाँति उन्हें भयभीत कर रही थी। जिस रमणी-रत्न की ज्योति से रनिवास में उजाला हो जाता था, उसको मेरे हाथों यह यन्त्रणा मिल रही है। सहसा अहल्या ने आँखें खोल दीं और बोली—तुम खड़े क्या कर रहे हो? मैं अभी स्वप्न देख रही थी कि कोई पिशाच मुझे नदी के शीतल जल में डुबाये देता है। अभी तक छाती धड़क रही है।

चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा—वह पिशाच मैं ही हूँ, अहल्या। मेरे ही हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है। अहल्या ने पति का हाथ पकड़कर चारपाई पर सुला दिया और वही कम्बल ओढ़ाकर बोली—तुम मेरे देवता हो, जिसने मुझे मझधार से निकाला है। पिशाच मेरा मन है, जो मुझे डुबाने की चेष्टा कर रहा है।

इतने में पड़ोस के एक मुर्ग ने बाँग दी। अहल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था। चक्रधर को आश्चर्य हुआ कि इतनी जल्द रात कैसे कट गयी।

आज वह नाश्ता करते ही कहीं बाहर न गये, बल्कि अपने कमरे में जाकर कुछ लिखते-पढ़ते रहे। शाम को उन्हें कुमार सभा में एक वक्तृता देनी थी। विषय था 'समाजसेवा'। इस विषय को छोड़कर वह पूरे घण्टे-भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे। सात बजते-बनते वह फिर लौट आये और दस बजे तक कुछ लिखते रहे। आज से यही उनका नियम हो गया। नौकरी तो वह कर न सकते थे। चित्त को इससे घृणा होती थी;