चमके! कहाँ पेंशन के पचीस रुपयों पर गुजर-बसर होती थी, कहाँ अब रियासत के मालिक थे। राजा साहब भी उनका अदब करते थे। अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, तो जामे से बाहर हो जाते। बात पीछे करते, निकालने की धमकी पहले देते—यहाँ तुम्हारे हथकण्डे एक न चलेंगे, याद रखना। जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किये बैठा हूँ। एक एक को निगल जाऊँगा। अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे। अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं।
इसमें भला किसी को आपत्ति करने का साहस हो सकता था? हाँ, सुननेवालों को ये बातें जरूर बुरी मालूम होती थीं। चक्रधर के कानों में कभी ये बातें पड़ जातीं, तो वह जमीन में गड़ से जाते थे। मारे लज्जा के उनकी गर्दन झुक जाती थी। वह आज-कल मुंशीजी से बहुत कम बोलते थे। अपने घर भी केवल एक बार गये थे। वहाँ माता की बातें सुनकर उनकी फिर जाने की इच्छा न होती थी। मित्रों से मिलना-जुलना उन्होंने बहुत कम कर दिया था; हालाँकि अब उनकी संख्या बहुत बढ़ गयी थी। वास्तव में यहाँ का जीवन उनके लिए असह्य हो गया था। वह फिर अपनी शान्ति कुटीर को लौट जाना चाहते थे। यहाँ आये दिन कोई न कोई बात हो ही जाती थी, जो दिन-भर उनके चित्त को व्यग्र रखने को काफी होती थी। कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डाँट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद। उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियो को तम्बीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था। सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहाँ उनके पुराने सिद्धात भंग होते चले जाते थे। वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले; पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दण्ड नीति का आश्रय लेना ही पड़ता था।
लेकिन अहल्या इस जीवन का चरम सुख भोग कर रही थी। बहुत दिनों तक दु:ख झेलने के बाद उसे यह सुख मिला था और वह उसमें मग्न थी। अपने पुराने दिन उसे बहुत जल्द भूल गये थे और उनकी याद दिलाने से उसे दुःख होता था। उसका रहन-सहन बिलकुल बदल गया था। वह अच्छी-खासी अमीरजादी बन गयी थी। सारे दिन आमोद-प्रमोद के सिवा उसे दूसरा काम न था। पति ने दिल पर क्या गुजर रही है, यह सोचने का कष्ट वह क्यों उठाती? जब वह खुश थी, तब उसके स्वामी भी अवश्य खुश रहे होंगे। राज्य पाकर कौन रोता है? उसकी मुख छवि अब पूर्ण-चन्द्र की भाँति तेजोमय हो गयी थी। उसकी वह सरलता, वह नम्रता, वह कर्मशीलता गायब हो गयी थी। चतुर गृहिणी अब एक सगर्वा यौवनवाली कामिनी थी, जिसकी आँखों से मद छलका पड़ता था। चक्रधर ने जब उसे पहली बार देखा था, तब वह एक मुर्झाती हुई कली थी और मनोरमा एक खिला हुआ प्रभात की स्वर्णमयी किरणों से विहँसित फूल। अब मनोरमा अहल्या हो गयी थी और अहल्या मनोरमा। अहल्या पहर दिन चढ़े