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[कायाकल्प
 

अँगड़ाइयाँ लेती हुई शयनागार से निकलती। मनोरमा पहर रात ही से घर या राज्य का कोई-न-कोई काम करने लगती थी शंखधर अब मनोरमा हो के पास रहता था, वही उसका लालन-पालन करती थी। अहल्या केवल कभी-कभी उसे गोद में लेकर प्यार कर लेती, मानों किसी दूसरे का बालक हो। बालक भी अब उसकी गोद में आते दुए झिझकता। मनोरमा ही अब उसकी माता थी। मनोरमा की जान अब उसमें थी और उनकी मनोरमा में। कभी-कभी एकान्त में मनोरमा बालक को गोद मे लिये घण्टा मुँह छिपाकर रोती। उसके अन्तस्थल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्नि-शिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आँखों से आँसू की चार बूँदें निकल पड़ती थीं। बालक भी उसे रोते देखकर रोने लगता। तब मनोरमा आँसुओं को पी जाती और हँसने की चेष्टा करके बालक को छाती से लगा लेती। उसकी तेजस्विता गहन चिन्ता और गम्भीर विचार में रूपान्तरित हो गयी थी। वह अहल्या से दबती थी। पर अहल्या उससे खिंची-सी रहती। कदाचित् वह मनोरमा के अधिकारों को छीनना चाहती थी, उसके प्रबन्ध में दोष निकालती रहती। पर रानी मनोरमा अपने अधिकारों से जी जान से चिमटी हुई थी, उनका अल्पांश भी न त्यागना चाहती थी, बल्कि दिनोंदिन उन्हें और बढ़ाती जाती थी। यही उसके जीवन का आधार था।

अब चक्रधर अहल्या से अपने मन की बातें कभी न कहते थे। यह सम्पदा उनका सर्वनाश किये डालती थी। क्या अहल्या यह सुख-विलास छोड़कर मेरे साथ चलने पर राजी होगी? उन्हें शंका होती थी कि कहीं वह इस प्रस्ताव को हँसी में न उड़ा दे, या मुझे रुकने के लिए मनबूर न करे। अगर वह दृढ भाव से एक बार कह देगी कि तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते, तो वह कैसे जायँगे? उन्हें इसका क्या अधिकार है कि उसे अपने साथ विपत्ति झेलने के लिए कहें? उन्होंने कहा, और वह अगर धर्म संकट में पड़कर उनके साथ चलने पर तैयार भी हो गयी, तो मनोरमा शंखघर को कब छोड़ेगी? क्या शखघर को छोड़कर अहल्या उनके साथ जायगी? जाकर प्रसन्न रहेगी? अगर बालक को मनोरमा ने दे भी दिया, तो क्या वह इस वियोग की वेदना सह सकेगी? इसी प्रकार के कितने ही प्रश्न चक्रधर के मन में उठते रहते थे और वह किसी भाँति अपने कर्तव्य का निश्चय न कर सकते थे। केवल एक बात निश्चित थी—वह इन बन्धनों में पड़कर अपना जीवन नष्ट न करना चाहते थे, सम्पत्ति पर अपने सिद्धान्तों को भेंट न कर सकते थे।

एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुन्शीजी ने आकर कहा—बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा क्यों नहीं कर आते? आखिर दिन-भर पड़े ही तो रहते हो? मेरी समझ में नहीं आता, तुम किस रग के आदमी हो। बेचारे राजा साहब अकेले कहाँ कहाँ देखेंगे और क्या क्या देखेंगे? रहा मैं सो किसी मसरफ का नहीं। मुझसे रिसी दावत या बारात या मजलिस का प्रबन्ध करने के सिवा अब और क्या हो सकता