सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२६३
 

कातर हृदय अहल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आँसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल यह मुझे न पायेगी, तो इसकी क्या दशा होगी। इधर कुछ दिनों से अहल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे थे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है। यहाँ तक कि वह शंखधर को भी गोद में उठाकर प्यार न करती थी; पर आज उसकी व्यग्रता देखकर उनका भ्रम जाता रहा, उन्हें ज्ञात हुआ कि इसका विलासी हृदय अब भी प्रेम में रत है! जब कोई वस्तु हमारे हाथ से जाने लगती है, तभी उसके प्रति हमारे सच्चे मनोभाव प्रकट होते हैं। निःशंक दशा में सबसे प्यारी वस्तुओं की भी हमें सुध नहीं रहती, हम उनकी ओर से उदासीन-से रहते हैं।

चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राज-भवन शान्ति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया, पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया या की कभी सपाट दीवार हाथ में आती, कभी कोई खिड़की, कभी कोई मेज। याद करने की चेष्टा करते थे कि मैं किस तरफ मुँह करके सोया था। द्वार ठीक चारपाई के सामने था; पर बुद्धि कुछ काम न देती थी। उन्होंने एक क्षण शान्त चित्त होकर विचार किया; पर द्वार का ज्ञान फिर भी न हुआ। यहाँ तक कि अपनी चारपाई भी न मिलती थी। आखिर उन्होंने दीवारों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। देखा, अहल्या सुख-निद्रा में मग्न है। क्या छवि थी, मानो उज्ज्वल पुष्पराशि पर कमल-दल बिखरे पड़े हों, मानो हृदय में प्रेम-स्मृति विश्राम कर रही हो।

चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहल्या को जगा दे और उसे गले लगाकर कहें—प्रिये! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूँगा। इस तरह चोरों की भाँति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी; किंतु जिस भाँति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख हम अपनी हँसी के वेग को रोकते हैं, उसी भाँति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला। मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है। किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जवान बन्द करता, खुला; पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ। अहल्या सोयी तो थी; पर उसे खटका लगा हुआ था। यह आहट पाते ही उसकी सचित निद्रा टूट गयी। वह चौंककर उठ बैठी और चक्रधर को पास की चारपाई पर न पाकर घबरायी हुई कमरे के बाहर निकल आयी। देखा तो चक्रधर दबे पाँव उस जीने पर चढ़ रहे थे, जो रानी मनोरमा के शयनागार को जाता था।

उसने घबराई हुई आवाज में पुकारा—कहाँ भागे जाते हो?

चक्रधर कमरे से निकले, तो उनके मन में बलवती इच्छा हुई कि शंखधर को देखते चलें। इस इच्छा को वह सवरण न कर सके। वह तेजस्वी बालक मानो उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया हो। वह ऊपर कमरे में रानी मनोरमा के पास सोया हुआ था। इसीलिए चक्रधर ऊपर जा रहे थे कि उसे आँख-भर देख लूँ। यह बात उनके ध्यान