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[कायाकल्प
 

में न आयी कि रानी को इस वक्त कैसे जगाऊँगा। शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों। इच्छा वेगवती होकर विचार शून्य हो जाती है। सहसा अहल्या की आवाज सुनकर वह स्तम्भित से हो गये। ऊपर न जाकर नीचे उतर आये और अत्यन्त सरल भाव से बोले—क्या तुम्हारी भी नींद खुल गयी?

अहल्या—मैं सोई कब थी! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे। तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है। मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोड़ूँगी। मैं अपने शंखधर को भी साथ ले चलूँगी। मुझे राज्य की परवा नहीं है। राज्य रहे या जाय। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते। तुम इतने निर्दयी हो, यह मुझे न मालूम था। तुम तो छल करना न जानते थे। यह विद्या कब सीख ली? बोलो, मुझे छोड़कर जाते हुए तुम्हें जरा भी दया नहीं आती।

चक्रधर ने लज्जित होकर कहा—तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहल्या। मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो। ईश्वर ने चाहा तो में जल्द ही लोटूँगा।

अहल्या—क्यों प्राणेश, मैंने तुम्हारे साथ कौन से कष्ट नहीं झेले, और वह ऐसा कौन सा कष्ट है, जो मैं झेल नहीं चुकी हूँ? अनाथिनी क्या पान-फूल में पूजी जाती है? मैं अनाथिनी थी, तुमने मेरा उद्धार किया। क्या वह बात भूल जाऊँगी? मैं विलास की चेरी नहीं हूँ। हाँ, यह सोचती थी कि ईश्वर ने जो सुख अनायास दिया है, उसे क्यों न भोगूँ? लेकिन नारी के लिए पुरुष सेवा से बढ़कर और कोई शृंगार, कोई विलास, कोई भोग नहीं है।

चक्रधर—और शंखधर?

अहल्या—उसे भी ले चलूँगी।

चक्रधर—रानी जी उसे जाने देंगी? जानतो हो, राजा साहब का क्या हाल होगा।

अहल्या—यह सब तो तुम भी जानते हो। मुझ पर क्यों भार रखते हो?

चक्रधर—सारांश यह कि तुम मुझे न जाने दोगी!

अहल्या—हाँ, तो मुझे छोड़कर तो तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ। किसी को दुख हो, तो हुआ करे।

इन बातों की कुछ भनक मनोरमा के कानों में भी पड़ी। वह भी अभी तक न सोयी थीं। उसने दरबान से ताकीद कर दी थी कि रात को चक्रधर बाहर जाने लगें, तो मुझे इत्तला देना। वह अपने मन की दो-चार बात चक्रधर से कहना चाहती थी। यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आयी। अहल्या के अन्तिम शब्द उसके कानों में पड़ गये। उसने देखा कि चक्रधर बड़े हतबुद्धि से खड़े हैं, अपने कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सकते, कुछ जवाब भी नहीं दे सकते। उसे भय हुआ कि इस दुविधे में पड़कर कहीं वह अपने कर्त्तव्य मार्ग से हट न जायँ, मेरा चित्त दुखी न हो जाय, इस भय से वह विरक्त होकर कहीं बैठ न रहें। वह चक्रधर को आत्मोत्सर्ग की मूर्ति समझती थी। उसे निश्चय था कि चक्रधर इस राज्य की तृण बराबर भी परवा नहीं करते, उन्हें तो सेवा की धुन लगी