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[कायाकल्प
 


चक्रधर मनोरमा को क्या मुँह दिखाते? अहल्या के इन वज्रकठोर शब्दों ने मनोरमा को इतनी पीड़ा नहीं पहुँचायी थी, जितनी उनको। मनोरमा दो-एक बार और भी ऐसी ही बातें अहल्या के मुख से सुन चुकी थी और उसके स्वभाव से परिचित हो गयी थी। चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का वह पहला अवसर था। वही अहल्या, जिसे यह नम्रता, मधुरता, शालीनता की देवी समझते थे, आज पिशाचिनी के रूप में उन्हें दिखायी दी। मारे ग्लानि के उनकी ऐसी इच्छा हुई कि धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ, फिर न इसका मुँह देखूँ न अपना मुँह दिखाऊँ। जिस रमणी के उपकारों से उनका एक एक रोयाँ आभारी था, उसके साथ यह व्यवहार! उसके उपकारों का यह उपहार! यह तो नीचता की चरम सीमा है! उन्हें ऐसा मालूम हुआ मेरे मुँह में कालिख लगी हुई है। वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके। उनके मन में विराग की एक तरंग-सी उठी। मन ने कहा—यही तुम्हारी भोग-लिप्सा का दंड है, तुम इसी के भूखे थे। जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहाँ से मुँह में कालिख लगाकर चले गये? इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहते रहे कि जब मैं जाने लगूँगा, अहल्या अवश्य साथ चलेगी? तुम समझते थे कि स्त्री की दृष्टि में पति प्रेम ही संसार की सब से अमूल्य वस्तु है? यह तुम्हारी भूल थी। आज उसी स्त्री ने पति-प्रेम को कितनी निर्दयता से ठुकरा दिया, तुम्हारे हवाई किलों को विध्वंस कर दिया और तुम्हें कहीं न रखा।

मनोरमा अभी सिर झुकाये खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैंडबेग उठाया और बाहर निकले। दरबान ने पूछा—सरकार, इस वक्त कहाँ जा रहे हैं?

चक्रधर ने मुस्कराकर कहा—जरा मैदान की हवा खाना चाहता हूँ। भीतर बड़ी गरमी है, नींद नहीं आती।

दरबान—मैं भी सरकार के साथ चलूँ?

चक्रधर—नहीं, कोई जरूरत नहीं।

बाहर आकर चक्रधर ने राज-भवन को ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखायी दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्र नेत्रोंवाले पिशाच की भाँति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। उन्हें ऐसा जान पड़ा कि वह मेरी ओर देखकर हँस रहा है और कह रहा है, क्या तुम समझते हो कि तुम्हारे चले जाने से यहाँ किसी को दुःख होगा? इसकी चिन्ता न करो। यहाँ यही बहार रहेगी, यों ही चैन की वंशी बजेगी। तुम्हारे लिए कोई दो बूँद आँसू भी न बहायेगा। जो लोग मेरे आश्रय में आते हैं, उनकी मैं कायाकल्प कर देता हूँ; उनकी आत्मा को महानिद्रा की गोद में सुला देता हूँ।

अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊँ, सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेनें लिये निकलते दिखायी दिये। समीप आने पर मालूम हुआ कि