हुई है, यहाँ रहकर वह अपने ऊपर बड़ा जब्र कर रहे हैं। पर यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकनेवाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गयी। तो क्या वह शंखधर के मोह में पकड़कर उनकी स्वतन्त्रता में बाधक होगी? अपनी पुत्र-तृष्णा को तृप्त करने के लिए उनके पैर की बेड़ी बनेगी? नहीं, वह इतनी स्वार्थिनी नहीं है। जिस बालक से उसे नाम का नाता होने पर इतना प्रेम है, उसे यह कितना चाहते होंगे? इसका वह भली भाँति अनुमान कर सकती थी। वह शंखधर के लिए रोयेगी, तड़पेगी, लेकिन अपने पास रखकर चक्रधर को पुत्र-वियोग का दुःख न देगी। वह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी। यही उसने स्थिर किया। राजा साहब का क्या हाल होगा, इसकी उसे याद ही न रही। आकर बोली—बाबूजी, आप मेरा खयाल न कीजिए, शंखधर को ले जाइए। आखिर आपका दिल वहाँ कैसे लगेगा। मुझे कौन, जैसे पहले रहती थी, वैसे ही फिर रहने लगूँगी। हाँ इतनी दया कीजिएगा कि कभी कभी उसे लाकर मुझे दिखा दिया कीजिएगा, मगर अभी तो दो-चार दिन रहिएगा। बेटियाँ क्या यों रोतोंरात विदा हुआ करती हैं? दो-चार दिन तो शंखधर को प्यार कर लेने दीजिए।
यह व्रत करते मनोरमा की आँखें डबडबा आयी। चक्रधर ने गद्गद कण्ठ से कहा—यह भला आपको छोड़कर मेरे साथ क्यों जाने लगा? आपके बगैर तो वह एक दिन भी न रहेगा।
मनोरमा—वह मैं कैसे कहूँ? माता पिता बालक के साथ जितना प्रेम कर सकते है, उतना दूसरा कौन कर सकता है?
अहल्या यह वाक्य सुनकर तिलमिला उठी। पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था। वह न यहाँ से जाना चाहती थी, न पति को जाने देना चाहती थी। शंखधर की याद में वह अपने मनोभाव को छिपाये हुए थी। उसे विश्वास था कि रानी शंखधर को कभी न जाने देंगी और न चक्रधर उनसे इस विषय में कुछ कह सकेंगे; पर जब रानी ने यह शस्त्र उसके हाथ मे छीन लिया, तो उसे शंका हुई कि इसमें जरूर कोई-न-कोई न रहस्य है। उसने तीव्र स्वर से कहा—तो क्या वह सब दिखावे ही का प्रेम था? आप तो कहती थीं, यह मेरा प्राण है, यह मेरा जीवन-आधार है, क्या वह सब केवल बातें थीं? क्या हमारी आँखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वाँग रचा था? आप हम लोगों को दूध की मक्खी की भाँति निकालकर अखण्ड राज्य करना चाहती हैं? यह न होगा। दादाजी को आप कोई दूसरा मन्त्र न पढ़ा सकेंगी। मेरे पुत्र का अहित आप न कर सकेंगी। मैं अब यहाँ से टलनेवाली नही। यह समझ लीजिएगा। अगर आपने समझ रखा हो कि इन सबों को भगाकर अपने भाई-भतीजे को यहाँ ला बिठाऊँगी, तो उस धोखे में न रहिएगा।
यह कहते कहते अहल्या उसी क्रोध से भरी हुई राजा साहब के शयन-गृह की ओर चली। मनोरमा स्तंभित सी खड़ी रह गयी। उसकी आँखों से आँसी गिरने लगे।