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[कायाकल्प
 


बूढ़ा—अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? जान का बदला जान है। मन्ना की अभागिनी विधवा माफी लेकर चाटेगी, उसके अनाथ बालक माफी की गोद में खेलेंगे, या माफी को दादा कहेंगे? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूँ। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं, दूसरा होता, तो फाँसी पर लटकाया जाता। मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन उनपर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जायँ, तो खून चूस लूँ।

चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ कि मन्नासिंह की लाश कफन में लिपटी हुई उन्हें निगलने के लिए दौड़ी चली आती है। चारों ओर से दानवों की विकराल ध्वनि सुनायी देती थी—यह हत्यारा है? सौ हत्यारों का एक हत्यारा है! समस्त आकाश-मंडल में देह के एक एक अणु में, यही शब्द गूँज रहे थे—यह हत्यारा है! सौ हत्यारों का हत्यारा है!

चक्रधर वहाँ एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियो के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी। मन्नासिंह की लाश सामने हड्डी की एक गदा लिये उनका रास्ता रोके खड़ी थी नहीं, वह उनका पीछा करती थी। वह ज्यों-ज्यों पीछे खिसकते थे, लाश आगे बढ़ती थी। चक्रधर ने मन को शान्त करके विचार का आह्वान किया, जिसे मन की दुर्बलता ने एक क्षण के लिए शिथिल कर दिया था। 'वाह! यह मेरी क्या दशा है। मृतदेह भी कहीं चल सकती है? यह मेरी भय विकृत कल्पना का दोष है। मेरे सामने कुछ नहीं है, अब तक तो में डर ही गया होता।' मन को यों दृढ करते ही उन्हें फिर कुछ न दिखायी दिया। वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अन्धकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भाँति इधर-उधर भटकते न थे। उन्हें अपने कर्तव्य का मार्ग साफ नजर आने लगा।

सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है।


३५

पाँच साल गुजर गये; पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर वही गरमी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अँगारे बरसते हैं, मगर अहल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। विलास की किसी बात से अब उसे प्रेम नहीं है। जिन वस्तुओं के प्रेम में फँसकर उसने अपने प्रियतम से हाथ धोया, वे सभी उसकी आँखों में काँटे की भाँति खटकतीं और हृदय में शूल की भाँति चुभती हैं, मनोरमा से अब उसका वह बर्ताव नहीं रहा। मनोरमा ही क्यों, लौंडियों तक से वह नम्रता के साथ बोलती और शंखधर के बिना तो अब वह एक क्षण नहीं रह सकती। पति को खोकर उसने अपने को पा लिया है। अगर वह विलासिता में पड़कर अपने को भूल न गयी होती, तो पति को खोती ही क्यों? वह अपने को बार बार धिक्कारती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गयी?