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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२८२

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कायाकल्प]
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है, चक्रधर पर क्या बीती? शंखधर पर क्या बीतेगी, इसे भी कौन जान सकता है? इस घर में उसे कौन-सा सुख नहीं था? उसके मुँह से कोई बात निकलने भर की देर थी, पूरा होने में देर न थी। क्या ऐसी भी कोई वस्तु है, जो इस ऐश्वर्य, भोग विलास और राजपाट से प्यारी है?

अभागिनी अहल्या! तू पड़ी सो रही है। एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आँखों में आँसू नहीं थमे। आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोये देती है। जिस सम्पत्ति के निमित्त तूने अपने पति की उपेक्षा की थी, वही सम्पत्ति क्या आज तुझे अजीर्ण नहीं हो रही है?


४१

पाँच वर्ष व्यतीत हो गये! पर न शंखधर का कहीं पता चला, न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलाञ्जलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते है कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। रियासत में धर्मार्थ जितने काम होते थे, वे सब बन्द कर दिये गये हैं। मन्दिरों में दिया नहीं जलता, साधु-सन्त द्वार से खड़े-खड़े निकाल दिये जाते हैं, और प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता। राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिये वह धर्म का दामन पकड़ें? वह किशोर अब कहाँ है, जिसके दर्शन मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहाँ चला गया? कुछ पता नहीं। यदि विधाता ने उनके ऊपर यह निर्दय आघात किया है, तो वह भी उसी के बनाये हुए मार्ग पर चलेंगे। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वही मनोरमा, जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिनी की भाँति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता। वह इस भीषण अन्धकार में अब भी दीपक की भाँति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अन्धकार में प्रसारित नहीं होता।

आह अबोध बालक! अब तूने देखा कि जिस अभीष्ट के लिये तूने जीवन की सभी आकांक्षाओं का परित्याग कर दिया, वह कितना असाध्य है। इस विशाल प्रदेश में, जहाँ तीस करोड़ प्राणी बसते हैं, तू एक प्राणी को कैसे खोज पायेगा! कितना अबोध साहस था, बालोचित सरल उत्साह की कितनी अलौकि लीला!

सन्ध्या हो गयी है। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गये, इसलिए उन्ध्या से पहले ही अन्धेरा हो चला है। रमणियाँ जल भरने के लिये कुएँ पर आ गयी है। इसी समय एक युवक हाथ में खँजरी लिये आकर कुँए की जगत पर बैठ गया।