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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२८१

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[ कायाकल्प
 

ही क्या है? दिन भर गलियों में घूमना और सव्या समय कहीं पढ़ रहना। यहाँ लोगो की क्या दशा होगी, इसकी उसे चिन्ता न थी। राजा साहब पागल हो जायँगे, मनोरमा रोते रोते अन्धी हो जायगी, अहल्या शायद प्राण देने पर उतारू हो जाय, इसकी उसे इस वक्त बिल्कुल फिक्र न थी। वह यहाँ से भाग निकलने के लिए विकल हो रहा था।

एकाएक उसे ख्याल आया, ऐसा न हो कि लोग मेरी तलाश में निकलें, थाने में हुलिया लिखायें, खुद भी परेशान हों, मुझे भी परेशान करें, इसलिए उन्हे इतना बतला देना चाहिए कि में कहाँ और किस काम के लिये जा रहा हूँ। अगर किसी ने मुझे जबरदस्ती लाना चाहा, तो अच्छा न होगा। हमारी खुशी है, जब चाहेंगे आयेंगे, हमारा राज्य तो कोई नहीं उठा ले जायेगा। उसने एक कागज पर यह पत्र लिखा और अपने बिस्तरे पर रख दिया--

'सब को प्रणाम, मेरा कहा-सुना माफ कीजिएगा। मैं आज अपनी खुशी ते पिताजी को खोजने जाता हूँ। आप लोग मेरे लिये जरा भी चिन्ता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि में किसी भी हालत में बिना पिता जी का पता लगाये न आऊँगा। जब तक एक बार दर्शन न कर लूँ और पूछ न लूँ कि मुझे किस तरह से जिन्दगी बसर करनी चाहिये, तब तक मेरा जीना व्यर्थ है। में पिताजी को अपने साथ लाने की चेष्टा करूँगा। या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौलौटूँगा, या इसी उद्योग में प्राण दे दूँगा। अगर मेरे भाग्य में राज्य करना लिखा है, तो राज्य करूँगा, भीख माँगना लिखा है, तो भीख माँगूंगा, लेकिन पिताजी के चरणों की रज माथे पर बिना लगाये, उनकी कुछ सेवा किये बिना मैं घर न लौटूँगा। मै फिर कहता हूँ कि मुझे वापस लाने की कोई चेष्टा न करे, नहीं तो मैं वहीं प्राण दे दूंगा। मेरे लिए यह कितनी लजा की बात है कि मेरे पिताजी तो देश-विदेश मारे-मारे फिरें और मैं चैन करूँ। यह दशा अब मुझसे नहीं सही जाती। कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊँगा। मैने ये सारी बातें अच्छी तरह सोच ली हैं। रुपये पैसे की भी मुझे जरूरत नहीं। अम्माजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिन्ता न करें। रानी अम्माँ को प्रणाम, बाबाजी को प्रणाम।'

आधी रात बीत चुकी थी। शखघर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला। बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे। वह पिछवाड़े की तरफ बाग में गया और एक अमरूद के पेड़ पर चढ़कर बाहर की तरफ कूद पड़ा। अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश या, सामने विस्तृत मैदान और छाती मे उल्लास, शका और आशा से धड़कता हुआ हृदय। वह बड़ी तेजी से कदम बढाता हुआ चला, कुछ नहीं मालूम कि किधर जा रहा है, तकदीर कहाँ लिये जाती है।

ऐसी ही अंधेरी रात थी, जब चक्रधर ने इस घर से गुप्त रूप से प्रस्थान किया था। आज भी वही अँधेरी रात है, और भागने वाला चक्रघर का आत्मज है। कौन जानता