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कायाकल्प]
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कोई कूल्हे पर कलसा रखे आगे बढ़ना भूल गयी—सभी मन्त्र-मुग्ध सी हो गयीं। उनकी हृदय-वीणा से भी वही अनुरक्त ध्वनि निकलने लगी।

एक युवती ने पूछा—बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गयी है, यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गाँव नहीं है।

शंखधर—आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊँगा। भला, माताजी, यहाँ कोई महात्मा तो नहीं रहते?

युवती—नहीं, यहाँ तो कोई साधु-सन्त नहीं है। हाँ, देवालय है।

दूसरी रमणी ने कहा—अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे, पर वह साधुओं के वेष में न थे। वह यहाँ एक महीने भर रहे। तुम एक दिन पहले यहाँ आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।

एक वृद्धा बोली—साधु संत तो बहुत देखे; पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहाँ है, बेटा?

शंखधर—कहाँ बताऊँ माता, यों ही घूमता-फिरता हूँ।

वृद्धा—अभी तुम्हारे माता-पिता है न बेटा?

शंखधर—कुछ मालूम नहीं, माता! पिताजी तो बहुत दिन हुए, कहीं चले गये। मैं तब दो तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।

वृद्धा—तुम्हारे पिता क्यों चले गये? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?

शंखधर—नही माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते थे।

वृद्धा—तो तुम्हें घर छोड़े कितना दिन हुए?

शंखधर—पाँच साल हो गये, माता। पिताजी को खोजने निकल पड़ा था; पर अब तक कहीं पता नहीं चला।

एक युवती ने अपनी सहेली के कन्धे से मुँह छिपाकर कहा—इनका ब्याह तो हो गया होगा?

सहेली ने उसे कुछ उत्तर न दिया। वह शंखधर के मुख की ओर ध्यान से देख रही थी। सहसा उसने वृद्धा से कहा—अम्मा इनकी सूरत महात्मा से मिलती है कि नहीं, कुछ तुम्हें दिखायी देता है?

वृद्धा—हाँ रे, कुछ-कुछ मालूम तो होता है। (शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?

शंखधर—४० वर्ष के लगभग होगी और क्या।

वृद्धा—आँखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?

शंखधर—हाँ माताजी, उतनी बड़ी आँखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।

वृद्धा—लम्बे लम्बे गोरे आदमी हैं?

शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला—हाँ माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है।