विलासान्धता का है। आज जाकर अम्माँजी से कह दीजिए, मुझे बुला लें। इस घर में आकर मैं अपना सुख खो बैठी और इस घर से निकल कर ही उसे पाऊँगी।
मनोरमा को ऐसा मालूम हुआ, मानो उसकी आँखे खुल गयीं। क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनन्द का अनुभव करेगी। क्या उसे भी ऐश्वर्य-प्रेम ही का दण्ड भोगना पड़ रहा है। क्या वह सारी अन्तर्वेदना इसी विलास-प्रेम के कारण है।
उसने कहा—अच्छा, अहल्या, मैं आज ही जाती हूँ।
इसके चौथे दिन मुंशी वज्रधर ने राजा साहब के पास रुखसती का सन्देशा भेजा। राजा साहब इलाके पर थे। सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये। अहल्या का कलेजा धक-वक करने लगा कि राजा साहब कहीं आ न जायँ। इधर-उधर छिपती फिरती थी कि उनका सामना न हो जाय। उसे मालूम होता था कि राजा साहब ने रुखसती मंजूर कर ली है, पर अब जाने के लिए वह बहुत उत्सुक न थी। यहाँ से जाना तो चाहती थी, पर जाते दुःख होता था। यहाँ आये उसे चौदह साल हो गये। वह इसी घर को अपना घर समझने लगी थी। ससुराल उसके लिए बिरानी जगह थी। कहीं निर्मला ने कोई बात कह दी, वह क्या करेगी? जिस घर से मान करके निकली थी, वहीं अब विवश होकर जाना पड़ रहा था। इन बातों को सोचते-सोचते आखिर उसका दिल इतना घबराया कि वह राजा साहब के पास जाकर बोली—आप मुझे क्यों विदा करते है? में नहीं जाना चाहती।
राजा साहब ने हँसकर कहा—कोई लड़की ऐसी भी है, जो खुशी से ससुराल जाती हो? और कौन पिता ऐसा है, जो लड़की को खुशी से विदा करता हो? मैं कब चाहता हूँ कि तुम जाओ, लेकिन मुंशी वज्रधर की आज्ञा है, और यह मुझे शिरोधार्य करनी पड़ेगी। वह लड़के के बाप हैं, मैं लड़की का बाप हूँ, मेरी और उनकी क्या बराबरी? और बेटी, मेरे दिल में भी अरमान है, उसके पूरा करने का और कौन अवसर आयेगा। शंखधर होता, तो उसके विवाह में वह अरमान पूरा होता। वह तुम्हारे गौने में पूरा होगा।
अहल्या इसका क्या जवाब देती।
दूसरे दिन से राजा साहब ने विदाई की तैयारियाँ करनी शुरू कर दीं। सारे इलाके के सोनार पकड़ बुलाये गये और गहने बनने लगे। इलाके ही के दरजी कपड़े सीने लगे। हलवाइयों के कड़ाह चढ़ गये और पकवान बनने लगे। घर की सफाई और रँगाई होने लगी। राजाओं, रईसों और अफसरों को निमन्त्रण भेजे जाने लगे। सारे शहर की वेश्याओं को बयाने दे दिये गये। बिजली की रोशनी का इन्तजाम होने लगा। ऐसा मालूम होता या, मानो किसी बड़ी बरात के स्वागत और सत्कार की तैयारी हो रही है। अहल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुँझलाती और शर्माती थी। सोचती—कहाँ-से-कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली। अब इस बुढापे में मेरा गौना। मैं मरने की राह देख रही हूँ; यहाँ गौने की तैयारी हो रही है। कौन जाने यह अन्तिम विदाई, ही