जितनी मानसिक वेदना हुई, उसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि अपने कमरे से यहाँ तक आने में उसे कम से कम दो घण्टे लगे। कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गयी। जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही उसका गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था।
मनोरमा ने उसे देखकर कहा—क्यों रो रही थी अहल्या। यों कब तक रोती रहोगी?
अहल्या ने दीन भाव से कहा—जब तक भगवान् रुलावे!
कहने को तो अहल्या ने यह कहा; पर इस प्रश्न से उसका गर्व जाग उठा और वह पछतायी कि यहाँ नाहक आयी। उसका मुख तेज से आरक्त हो गया।
मनोरमा ने उपेक्षा-भाव से कहा—तब तो और हँसना चाहिए। जिसमें दया नहीं, उसके सामने रोकर अपना दीदा क्यों खोती हो। भगवान् अपने घर का भगवान होगा। कोई उसके रुलाने से क्यों रोये? मन में एक बार निश्चय कर लो कि अब न रोऊँगी, फिर देखूँ कि कैसे रोना आता है!
अहल्या से अब जब्त न हो सका, बोली—तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो, रानी जी! तुम्हारा-जैसा हृदय कहाँ से लाऊँ? और फिर रोता भी वह है, जिस पर पड़ती है। जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोयेगा?
मनोरमा हँसी—वह हँसी, जो या तो मूर्ख ही हँस सकता है या मानी ही। बोली—अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है। अगर कोई माता या पिता अपनी सन्तान को रोते देखकर प्रसन्न हो, तो तुम उसे क्या कहोगी—बोलो? तुम्हारा जी चाहेगा कि ऐसे प्राणी का मुँह न देखूँ। क्या ईश्वर हमसे और तुमसे भी गया बीता है? आओ, बैठकर गावें। इससे ईश्वर प्रसन्न होगा। वह जो कुछ करता है, सबके भले ही के लिए करता है। इसलिए जब वह देखता है कि उसे लोग अपना शत्रु समझते हैं, तो उसे दुःख होता है। तुम अपने पुत्र को इसीलिए तो ताड़ना देती दो कि वह अच्छे रास्ते पर चले। अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रुठ जाय और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दुख होगा? आओ, तुम्हें एक भैरवी सुनाऊँ। देखो, मैं कैसा अच्छा गाती हूँ!
अहल्या ने गाना सुनने के प्रस्ताव को अनसुना करके कहा—माता पिता सन्तान को इसीलिए तो ताड़ना देते है कि वह बुरी आदतें छोड़ दें, अपने बुरे कामों पर लज्जित हो और उसका प्रायश्चित्त करें? हमें भी जब ईश्वर ताड़ना देता है, तो उसकी भी यही इच्छा होती है। विपत्ति ताड़ना ही तो है। मैं भी प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ और आप से उसके लिए सहायता माँगने आयी हूँ। मुझे अनुभव हो रहा है कि यह सारी विडम्बना मेरे विलास-प्रेम या फल है, और मैं इसका प्रायश्चित्त करना चाहती हूँ। मेरा मन कहता है कि यहाँ से निकलकर मैं अपना मनोरथ पा आऊँगी। यह सारा दण्ड मेरी