शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनन्द मिल रहा था, वह कभी माता की प्रेम भरी बातों में भी न मिला था। पाँच वर्ष हुए; तब से वह अपने मन की करता आया है। वह जो पाता है, खाती है; जब चादता है, पानी पीता है, जहाँ जगह पाता है, पड़ रहता है। किसी को इसकी कुछ परवा नहीं होती। लोटा हाथ से न छीना गया होता, तो वह बिना दो-चार घुड़कियाँ खाये न मानता।
मन्दिर के पीछे छोटा सा बाग और कुआँ था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही, सब कुछ है। उसकी राल टपकने लगी। इन पदार्थों का स्वाद चखे हुए उसे एक युग बीत गया था; मगर उसे कितना श्राश्चर्य हुआ, जब उसने देखा कि ये सारे पदार्थ उसीके लिए मँगवाये गये हैं। चक्रधर ने उसके लिए खाना एक पत्तल में रख दिया और आप कुछ मोटी रोटियाँ और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनायी थी।
शङ्खधर ने कहा—आप तो सब मुझी को दिये जाते है, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं।
चक्रधर—मेरे लिए तो यह रोटियाँ है। मेरा भोजन यही है।
शङ्खधर-तो फिर मुझे भी रोटियाँ ही दीजिए।
चक्रधर—मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचन शक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूँ।
शङ्खधर—मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है। मैंने तो बरसों से इन चीजों की सूरत तक नहीं देखी। अगर आप न आयँगे, तो मैं भी न खाऊँगा।
आखिर शङ्खधर के आग्रह से चक्रधर को अपना नियम तोड़ना पड़ा। सोलह वषों का पाला हुआ नियम, जिसे बड़े-बड़े रईसों और राजाओं का भक्तिमय आग्रह भी न तोड़ सका था, आज इस अपरिचित बालक ने तोड़ दिया। उन्होंने मनाकर कहा—भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूँ। अब तो खाओगे, या अब भी नहीं?
उन्होंने सब चीजों में से जरा-जरा-सा निकालकर अपनी पत्तल में रख लिया और बाकी चीजें शङ्खघर के आगे रख दीं। शङ्खधर ने अब भी भोजन में हाथ नहीं लगाया।
चक्रधर ने पूछा—अब क्या बैठे हो, खाते क्यों नहीं? तुम्हारे मन की बात हो गयी? या अब भी कुछ बाकी है?
शंखधर—आपने तो केवल उलाहना छुड़ाया है। लाइए मैं परस दूँ।
चक्रधर—अगर तुम इस तरह जिद करोगे, तो मैं तुम्हारी दवा न करूँगा। अपने साथ रखूँगा भी नहीं।
शङ्खधर—मुझे क्या, न दवा कीजिएगा, तो यहीं पड़ा पड़ा मर जाऊँगा। कौन