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[कायाकल्प
 

कोई रोनेवाला बैठा हुआ है?

यह कहते-कहते शंखधर की आँखें सजल हो गयीं। चक्रधर ने विकल होकर कहा—अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो। अपशब्द क्यों मुँह से निकालते हो? लाओ, कितना देते हो? अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मँगवा दिया करूँगा।

शङ्खधर ने सभी चीजों में से आधी से अधिक उनके सामने रख दी, और आप एक पंखा लेकर उन्हें झलने लगा। चक्रधर ने वात्सल्यपूर्ण कठोरता से कहा—मालूम होता है, आज तुम मुझे बीमार करोगे। भला, इतनी चीजें मैं खा सकूँगा?

शङ्खधर—इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं।

चक्रधर—यह थोड़ी थोड़ी हैं। तो क्या तुम सब की-सब मेरे ही पेट में ठूँस देना चाहते हो? अब भी बैठोगे या नहीं? मुझ पंखे की जरूरत नहीं।

शङ्खधर—आप खायँ, मैं पीछे से खा लूँगा।

चक्रधर—भाई, तुम विचित्र जीव हो। तीन दिन के भूखे हो और मुझसे कहते हो, आप खाइए, मैं फिर खा लूँगा।

शङ्खधर—मैं तो आपका जूठन खाऊँगा।

उसकी आँखें फिर सजल हो गयीं! चक्रधर ने तिरस्कार के भाव से कहा—क्यों भाई, मेरा जूठन क्यों खाओगे? अब तो सब बातें तुम्हारे ही मन की हो रही हैं।

शङ्खधर—मेरी बहुत दिनों से यही आकांक्षा थी। जब से आपकी कीर्ति सुनी, तभी से यह अवसर खोज रहा था।

चक्रधर—तुम न आप खाओगे, न मुझे खाने दोगे।

शङ्खधर—मैं तो आपका जूठन ही खाऊँगा।

चक्रधर को फिर हार माननी पड़ी। वह एकान्तवासी, संयमी व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भाँति न टाल सकता था।

शङ्खधर को आज खड़े होकर पंखा झलने मे जो आनन्द, जो आत्मोल्लास, जो गर्व हो रहा था, उसका कौन अनुमान कर सकता है। इस आनन्द के सामने वह त्रिलोक के राज्य पर भी लात मार सकता था। आज उसे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके। कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह सेवा वरदान मिला है। उससे बढ़कर सुखी और कौन हो सकता है। आज उसे अपना जीवन सार्थक मालूम हो रहा है—वह जीवन, जिसका अब तक कोई उद्देश्य न था। आनन्द के आँसू उसकी आँखों से बहने लगे।

चक्रधर जब भोजन करके उठ गये, तो उसने उसी पत्तल में अपनी पत्तल की चीजें डाल लीं और और भोजन करने बैठा। ओह! इस भोजन में कितना स्वाद था। क्या सुधा में इतना स्वाद हो सकता है? उसने आज से कई साल पहले उत्तम से-उत्तम पदार्थ खाये थे; लेकिन उनमें यह अलौकिक स्वाद कहाँ था?

चक्रधर हाथ मुँह धोकर गद्‌गद् कण्ठ से बोले—तुमने आज मेरे दो नियम भंग