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[कायाकल्प
 

में किसी पक्षी की भाँति चक्कर लगा रहा था। 'शङ्खधर।' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बाँधे हुई थी।


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राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहल्या का गौना किया, वह राजाओं रईसो में भी बहुत कम देखने में आता है। तहसीलदार साहब के घर में इतनी चीजों को रखने की जगह भी न थी। बर्तन, कपड़े, शीशे के सामान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएँ मेवे, मिठाइयाँ, गाय, भैंसे—इनका हफ्तों तक ताँता लगा रहा। दो हाथी और पाँच घोड़े भी मिले, जिनके बाँधने के लिए घर में जगह न थी। पाँच लौंडियाँ अहल्या के साथ आयीं। यद्यपि तहसीलदार साहब ने नया मकान बनवाया था, पर वह क्या जानते थे कि एक दिन यहाँ रियासत जगदीशपुर की आधी सम्पत्ति आ पहुँचेगी? घर का कोना-कोना सामानों से भरा हुआ था। कई पड़ोसियों के मकान भी अँट उठे। उसपर लाखों रुपया नगद मिले वह अलग। तहसीलदार साहब लाने को तो सब कुछ लाये, पर अब उन्हें देख देख रोते और कुढ़ते थे। कोई भोगनेवाला नहीं! अगर यही सम्पत्ति आज के पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिन्दगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढापे में इनको लेकर क्या करें? चीजो को बेचना अपमान की बात थी। हाँ, यार-दोस्तों को जो कुछ भेंट कर सकते थे, किया। अनाज की कई गाड़ियाँ मिली थीं, वह सब उन्होंने लुटा दीं। कई महीने सदाबत सा चलता रहा। नौकरों को हुक्म दे दिया कि किसी आदमी को कोई चीज मँगनी देने से इन्कार मत करो। सहालग के दिनों में रोज ही हाथी, घोड़े, पालकियाँ, फर्श आदि सामान मँगनी जाते। सारे शहर में तहसीलदार साहब की कीर्ति छा गयी। बड़े-बड़े रईस उनसे मुलाकात करने आने लगे। नसीब जगे, तो इस तरह जगे। रोटियाँ भी न मयस्सर होती थीं, आज द्वार पर हाथी झूमता है। सारे शहर में यही चर्चा थी।

मगर मुंशीजी के दिल पर जो कुछ बीत रही थी, वह कौन जान सकता है? दिन में बीसों ही बार चक्रधर पर बिगड़ते—नालायक! आप तो आप गया, अपने साथ लड़के को भी ले गया। न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा, देश का उपकार करने चला है। सच कहा है—घर की रोयें, बन की सोयें। घर के आदमी मरे, परवा नहीं, दूसरों के लिए जान देने को तैयार। अब बताओ, इन हाथी, घोड़े, माटरों और गाड़ियों को लेकर क्या करूँ? अकेले किस किस पर बैठूँ? बहू है, उसे रोने से फुरसत नहीं। बच्चा की माँ हैं, उनसे अब मारे शाक के रहा नहीं जाता, कौन बैठे। यह सामान तो मेरे जी का जंजाल हो गया। पहले बेचारे शाम-सवेरे कुछ गा बजा लेते थे, कुछ सरूर भी जमा लिया करते थे, अब इन चीजों की देख भाल ही में भोर हो जाता। क्षण-भर भी आराम से बैठने की मुहलत न मिलती। निर्मला किसी चीज की ओर आँख उठाकर भी न देखती, मुंशीजी ही को सबकी निगरानी करनी पड़ती थी।

अहल्या यहाँ आकर और भी पछताने लगी। यह रनिवास के विलासमय जीवन से