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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३०३

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[कायाकल्प
 

दिन बिदा कर दिया।

आज २० साल के बाद अहल्या ने इस घर में फिर प्रवेश किया था, पर आह। इस घर की दशा ही कुछ और थी। सारा घर गिर पड़ा था। न आँगन का पता था, न बैठक का। चारों ओर मलबे का ढेर जमा हो रहा था। उस पर मदार और धतूर के पौधे उगे हुए थे। एक छोटी सी कोठरी बच रही थी। वागीश्वरी उसी में रहती थी। उसकी सूरत भी उस घर के समान ही बदल गयी थी। न मुँह में दाँत, न आँखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी। दोनों गले मिलकर खूब रोयीं। जब आँसुओं का वेग कम हुआ, तो वागीश्वरी ने कहा—बेटी, तुम अपने साथ कुछ सामान नहीं लायीं—क्या दूसरी ही गाड़ी से लौट जाने का विचार है? इतने दिनों के बाद आयी थीं, तो इस तरह! बुढ़िया को बिलकुल भूल ही गयी। खँड़हर में तुम्हारा जी क्यों लगेगा।

अहल्या—अम्माँ, महल में रहते रहते जी ऊब गया, अब कुछ दिन इस खँड़हर में ही रहूँगी और तुम्हारी सेवा करूँगी। जब से तुम्हारे घर से गयी, तब से एक दिन भी सुख नहीं पाया। तुम समझती होगी कि मैं वहाँ बड़े आनन्द से रहती हूँगी, लेकिन अम्माँ, मैने वहाँ दुःख-ही-दुख पाया, आनन्द के दिन तो इसी घर में बीते थे।

वागीश्वरी—लड़के का अभी कुछ पता न चला?

अहल्या—किसी का पता नहीं चला, अम्माँ! मैं राज्य सुख पर लट्टू हो गयी थी। उसी का दण्ड भोग रही हूँ। राज्य सुख भोगकर तो जो कुछ मिलता है, वह देख चुकी, अब उसे छोड़कर देखूँगी कि क्या जाता है, मगर तुम्हें तो बड़ा कष्ट हो रहा है, अम्माँ?

वागीश्वरी—कैसा कष्ट बेटी? जब तक स्वामी जीते रहे, उनकी सेवा करने में सुख मानती थी। तीर्थ, व्रत, पुण्य, धर्म सब कुछ उनकी सेवा ही में था। अब वह नहीं है, तो उनकी मर्यादा की सेवा कर रही हूँ। आज भी उनके कितने ही भक्त मेरी मदद करने को तैयार हैं, लेकिन क्यों किसी की मदद लूँ? तुम्हारे दादाजी सदैव दूसरों की सेवा करते रहे। इसी में अपनी उम्र काट दी। तो फिर मैं किस मुँह से सहायता के लिए हाथ फैलाऊँ?

यह कहते कहते वृद्धा का मुखमण्डल गर्व से चमक उठा। उसकी आँखों में एक विचित्र स्फूर्ति झलकने लगो! अहल्या का सिर लज्जा से झुक गया। माता, तुझे धन्य है! तू वास्तव में सती है, तू अपने ऊपर जितना गर्व करे, वह थोड़ा है।

वागीश्वरी ने फिर कहा—ख्वाजा महमूद ने बहुत चाहा कि मैं कुछ महीना ले लिया करूँ। मेरे मैकेवाले कई बार मुझे बुलाने आये। यह भी कहा कि महीने में कुछ ले लिया करो। भैया बड़े भारी वकील हैं, लेकिन मैंने किसी का एहसान नहीं लिया। पति की कमाई को छोड़कर और किसी की कमाई पर स्त्री का अधिकार नहीं होता। चाहे कोई मुँह से न कहे; पर मन में जरूर समझेगा कि मैं इन पर एहसान कर रहा हूँ। जब तक आँखें थीं, सिलाई करती रही। जब से आँखें गयीं, दलाई करती