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कायाकल्प]
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निश्चय था कि अब वह यहाँ न रहेगी; यहाँ तो वह बन्धनों में और भी जकड़ गयी थी।

अब उसे वागीश्वरी की याद आयी। सुख के दिन वही थे, जो उसके साथ कटे। असली मैका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहाँ मिला, वह फिर न नसीब हुआ। अब उसे याद आता था कि मैं वहाँ से दुःख झेलने ही के लिए आयी थी। वह स्नेहसुख स्वप्न हो गया। सास मिली वह इस तरह की, ननद मिली वह इस ढंग की; माँ थी ही नहीं, केवल बाप को पाया; मगर उसके बदले में क्या क्या देना पड़ा। जिस दिन मालूम हुआ था कि वह राजा की बेटी है, वह फूली न समायी थी, उसके पाँव जमीन पर न पड़ते थे; पर आह! क्या मालूम था कि उस क्षणिक आनन्द के लिए उसे सारी उम्र रोना पड़ेगा।

अब अहल्या को रात दिन यही धुन रहने लगी कि किसी तरह वागीश्वरी के पास चलूँ, मानो वहाँ उसके सारे दुःख दूर हो जायँगे। इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ था कि वह आगरे ही में है। अहल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था—मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो। अब अहल्या का मन वागीश्वरी के पास जाने के लिए अधीर हो उठा। वागीश्वरी भी उसी की भाँति दुःखिनी है। सारी आशाओं एवं सारे माया-मोह से मुक्त हो चुकी है। वही उसके साथ सच्ची सहानुभूति कर सकती है, वही अपने मातृस्नेह से उसका क्लेश हर सकती है।

आखिर एक दिन अहल्या ने सास से यह चर्चा कर ही दी। निर्मला ने कुछ भी आपत्ति नहीं की। शायद वह खुश हुई कि किसी तरह यह यहाँ से टले। मंगला तो उसके जाने का प्रस्ताव सुनकर हर्षित हो उठी। जब वह चली जायगी, तो घर में मंगला का राज हो जायगा। जो चीज चाहेगी, उठा ले जायगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकनेवाला न रहेगा। दो महीने भी अहल्या वहाँ रह गयी, तो मंगला अपना घर भर लेगी। ज्यादा नहीं, तो आधी सम्पदा तो अपने घर पहुँचा ही देगी।

अहल्या जब यात्रा की तैयारियाँ करने लगी, तो मंगला ने कहा—भाभी, तुम चली जाओगी, तो यहाँ बिलकुल अच्छा न लगेगा। वहाँ कब तक रहोगी?

अहल्या—अभी क्या कहूँ बहन, यह तो वहाँ जाने पर मालूम होगा।

मंगला—इतने दिनों के बाद जा रही हो, दो तीन महीने तो रहना ही पड़ेगा। तुम चली जा रही हो, तो मैं भी चली जाऊँगी। अब तो रानी साहबा से भी भेंट नहीं होती, अकेले कैसे रहा जायगा? तुम्हीं दोनों जनों से मिलने तो आयी थी। रानी साहबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो। यह कह कर मंगला रोने लगी।

दूसरे दिन अहल्या यहाँ से चली। अपने साथ कोई साज-सामान न लिया। साथ की लौंडियाँ चलने को तैयार थीं; पर उसने किसी को साथ न लिया। केवल एक बुड्ढे कहार को पहुँचाने के लिए ले लिया। और उसे भी आगरे पहुँचने के दूसरे ही