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[कायाकल्प
 

सदैव विकल रहेगी और माताजी के स्वस्थ होते ही मैं फिर आपकी सेवा में आ जाऊँगा।

चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा—नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना। मैं स्वयं कभी-कभी तुम्हारे पास आया करूँगा। मैंने भी तुमको पुत्र तुल्य समझा है और सदैव समझता रहूँगा। मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ रहेगा।

सन्ध्या समय शंखधर अपने पिता से विदा होकर चला। चक्रधर को ऐसा मालूम हो रहा था, मानो उनका हृदय वक्षस्थल को तोड़कर शंखधर के साथ चला जा रहा है। जब वह आँखों से ओझल हो गया, तो उन्होंने एक लम्बी साँस ली और बालकों की भाँति बिलख बिलखकर रोने लगे। ऐसा मालूम हुआ मानो चारों ओर शून्य है। चला गया! वह तेजस्वी कुमार चला गया, जिसको देखकर छाती मन भर की हो जाती थी, और जिसके जाने से अब जीवन निरर्थक, व्यर्थ जान पड़ता था।

उन्हें ऐसी भावना हुई कि फिर उस प्रतिभा-सम्पन्न युवक के दर्शन न होंगे!


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अहल्या के आने की खबर पाकर मुहल्ले की सैकड़ों औरतें टूट पड़ीं। शहर के कई बड़े घरों की स्त्रियाँ भी आ पहुँची। शाम तक ताँता लगा रहा। कुछ लोग डेपुटेशन बनाकर सस्थाओं के लिए चन्दे माँगने आ पहुँचे। अहल्या को इन लोगों से जान बचानी मुश्किल हो गयी। किस-किससे अपनी विपत्ति कहे? अपनी गरज के बावले अपनी कहने में मस्त रहते हैं, वह किसी की सुनते ही कब हैं? इस वक्त अहल्या को फटे-हालों यहाँ आने पर बड़ी लज्जा आयी। वह जानती कि यहाँ यह हरबोंग मच जायगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती। उसे अब इस टूटे फूटे मकान में ठहरते भी लज्जा आती थी। जब से देश ने जाना कि वह राजकुमारी है, तब से वह कहीं बाहर न गयी थी। कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर। दूसरे शहर में आने का उसे यह पहला ही अवसर था। अब उसे मालूम हुआ कि धन केवल भोग की वस्तु नहीं है, उससे यश और कीर्ति भी मिलती है। भोग से तो उसे घृणा हो गयी थी, लेकिन यश का स्वाद उसे पहली ही बार मिला। शाम तक उसने १५-२० हजार के चन्दे लिख दिये और मुंशी वज्रधर को रुपये भेजने के लिए पत्र भी लिख दिया। खत पहुँचने की देर थी। रुपये आ गये। फिर तो उसके द्वार पर भिक्षुकों का जमघट रहने लगा। लँगड़ों-अन्धों से लेकर जोड़ी और मोटर पर बैठने वाले भिक्षुक भिक्षा-दान माँगने आने लगे। कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमन्त्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का। कुमारी-सभा, बालिका विद्यालय, महिला क्लब आदि सस्थाओं ने उसे मान-पत्र दिये, और उसने ऐसे सुन्दर उत्तर दिये कि उसकी योग्यता और विचारशीलता का सिक्का बैठ गया। 'आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास' वाली कहावत हुई। तपस्या करने आयी थी, यहाँ सभ्य समाज की क्रीड़ाओं में मग्न हो गयी। अपने अभीष्ट का ध्यान ही न रहा।

ख्वाजा महमूद को भी खबर मिली। बेचारे आँखों से माजूर थे। मुश्किल से चल-