उसे शंखधर की दिव्य मूर्ति ब्रह्मचर्य के तेज से चमकती हुई खड़ी दिखायी दी, मानो उसका सौभाग्य-सूर्य उदित हो गया हो। क्या अब भी कोई सन्देह हो सकता था? लेकिन संस्कारों को मिटाना भी तो आसान नहीं। संसार में कितना कपट है, क्या इसका उसे काफी अनुभव न था? यद्यपि उसका हृदय उन चरणों से दौड़कर लिपट जाने के लिए अधीर हो रहा था, फिर भी मन को रोककर उसने दूर ही से पूछा—महाराज, आप कौन हैं, और मुझे क्यों याद किया है?
शंखधर ने रानी के समीप जाकर कहा—क्या मुझे इतनी जल्द भूल गयी, कमला? क्या इस रूपान्तर ही से तुम्हें यह भ्रम हो रहा है? मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा से अमर होकर आज तक उसी अपार आनन्द की खोज में भटकता फिरता हूँ। क्या कुछ और परिचय दूँ? वह पर्वत की गुफा तुम्हें याद है? वह वायुयान पर बैठकर आकाश में भ्रमण करना याद है? आह! तुम्हारे उस स्वर्गीय संगीत की ध्वनि अभी तक कानों में गूँज रही है। प्रिये, कह नहीं सकता, कितनी बार तुम्हारे हृदय मन्दिर के द्वार पर भिक्षुक बनकर आया; लेकिन दो बार आना याद है। मैंने उसे खोलकर अन्दर जाना चाहा; पर दोनों ही बार असफल रहा। वही अतृप्त आकांक्षा मुझे फिर खींच लायी है, और
रानी कमला ने उन्हें अपना वाक्य न पूरा करने दिया। वह दोड़कर उनके चरणों पर गिर पड़ी और उन्हें अपने आँसुओं से पखारने लगी। यह सौभाग्य किसको प्राप्त हुआ है। जिस पवित्र मूर्ति की वह बीस वर्ष से उपासना कर रही थी, वही उसके सम्मुख खड़ी थी। वह अपना सर्वस्व त्याग देगी; इस ऐश्वर्य को तिलांजलि दे देगी और अपने प्रियतम के साथ पर्वतों में रहेगी। वह सब कुछ झेलकर अपने स्वामी के चरण से लगी रहेगी। इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है।
लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गयी। उसके उन्मत्त हृदय को ठोकर-सी लगी। यौवन-काल के रूप-लावण्य के लिए उसका मन लालायित हो उठा; वे काले काले लम्बे केश, वह पुष्प के समान विकसित कपोल, वे मदभरी मतवाली आँखें, वह कोमलता, वह माधुर्य अब कहाँ? क्या इस दशा में वह अपने स्वामी की प्राणेश्वरी बन सकेगी?
सहसा शंखधर बोले—कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी?
रानी ने उनका हाथ पकड़कर कहा—आओ, आज २० वर्ष से तुम्हारी उपासना कर रही हूँ। आह! आप उस समय आये हैं, जब मेरे पास प्रेम नहीं, केवल श्रद्धा और भक्ति है। आइए, मेरे हृदय-मन्दिर में विराजिए।
शंखधर—ऐसा क्यों कहती हो, कमला?
कमला ने सजल-नेत्रों से शङ्खधर की ओर देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। शङ्खधर ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा—प्रिये, मेरी दृष्टि में तुम वही हो, जो आज से