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[कायाकल्प
 

उपासक विवाह करने जा रहा था। मनोरथों पर पड़ी हुई तुषार सिर, मूँछ और भौंहों को सम्पूर्ण रूप से ग्रस चुकी थी, जिनकी ठण्डी साँसों से दाँत तक गल गये थे, वही अपनी झुकी हुई कमर और काँपती हुई टाँगों से प्रणय-मन्दिर की ओर दौड़ा जा रहा था। वाह रे मोह की कुटिल-क्रीड़ा!

मनोरमा ने आग्रह-पूर्ण स्वर से कहा—जरा बैठ जाइए, मैं आपका बहुत समय न लूँगी।

राजा—बैठूँगा नहीं, मुझे फुरसत नहीं हैं। जो बात कहनी है, वह कह दो, मगर मुझे ज्ञान का उपदेश मत देना।

मनोरमा—ज्ञान का उपदेश मैं भला आपको क्या दूँगी? केवल इतना ही कहती हूँ कि कल बरात में सावधान रहिएगा।

राजा—क्यों?

मनोरमा—उपद्रव हो जाने का भय है।

राजा—बस, इतना ही कहना है या कुछ और?

मनोरमा—बस, इतना ही।

राजा—तो तुम जाओ, मैं उपद्रवों की परवा नहीं करता। लुटेरों का भय उसे होता है, जिसके पास सोने की गठरी हो। मेरे पास क्या है, जिसके लिए डरूँ?

एकाएक उनकी मुखाकृति कठोर हो गयी। आँखों में अस्वाभाविक प्रकाश दिखायी दिया। उद्दण्डता से बोले—मुझे किसी का भय नहीं है। अगर किसी ने चूँ भी किया, तो रियासत में आग लगा दूँगा। खून की नदी बहा दूँगा। विशालसिंह रियासत का मालिक है, उसका गुलाम नहीं। कौन है, जो मेरे सामने खड़ा हो सके? मेरी एक तेज निगाह शत्रुओं का पित्ता पानी कर देने के लिए काफी है।

मनोरमा का हृदय करुणा से व्याकुल हो उठा। इन शब्दों में कितनी मानसिक वेदना भरी हुई थी, वे होश की बातें नहीं, बेहोशी की बड़ थीं। आग्रह करके बोली—फिर भी सावधान रहने में तो कोई बुराई नहीं है। मैं आपके साथ रहूँगी।

राजा ने मनोरमा की ओर सशंक नेत्रों से देखकर कहा—नहीं, नहीं, तुम मेरे साथ नहीं रह सकतीं, किसी तरह नहीं। मैं तुमको खूब जानता हूँ।

यह कहते हुए राजा साहब बाहर चले गये। मनोरमा खड़ी सोचती रह गयी कि इन बातों का क्या आशय है? इन शब्दों में जो शङ्का और दुश्चिन्ता छिपी हुई थी, यदि इनकी गन्ध भी उसे मिल जाती, तो शायद उसका हृदय फट जाता, वह वहीं खड़ी खड़ी चिल्लाकर रो पड़ती। उसने समझा, शायद राजा साहब को उसे अपने साथ रखने में वही संकोचमय आपत्ति है, जो प्रत्येक पुरुष को स्त्रियों से सहायता लेने में होती है। इस वक्त वह लौट गयी, लेकिन यह खटका उसे बराबर लगा हुआ था।

रात अधिक बीत गयी थी। बाहर बारात की तैयारियाँ हो रही थीं। ऐसा शानदार जुलूस निकालने की आयोजना की जा रही थी, जैसा इस नगर में कभी न निकला हो।