थे। बार-बार कुँवर को छाती से लगाते थे; पर तृप्ति ही न होती थी। आँखों से आँसू की झड़ी लगी हुई थी। जब जरा चित्त शान्त हुआ, तो बोले—तुम आ गये बेटा, मुझपर बड़ी दया की। चक्रधर को लाये हो न?
शंखधर ने कहा—वह तो नहीं आये।
राजा—आयेंगे, मेरा मन कहता है। मैं तो निराश हो गया था, बेटा। तुम्हारी माता भी चली गयीं। तुम पहले ही चले गये; फिर मैं किसका मुँह देख-देखकर जीता? जीवन का कुछ तो आधार चाहिए। अहल्या तभी से न जाने कहाँ घूम रही है।
शंखधर—वह तो मेरे साथ हैं।
राजा—अच्छा, वह भी आ गयी। वाह मेरे ईश्वर! सारी खुशियाँ एक ही दिन के लिए जमा कर रखी थीं। चलो, उसे देखकर आँखें ठण्ढी करूँ।
बरात रुक गयी। राजा साहब और शंखधर अहल्या के पास आये। पिता और पुत्री का सम्मिलन बड़े आनन्द का दृश्य था। कामनाओं के वे वृक्ष, जो मुद्दत हुई, निराशा-तुषार की भेंट हो चुके थे आज लहलहाते, हरी-भरी पत्तियों से लदे हुए सामने खड़े थे। आँसुओं का वेग शान्त हुआ, तो राजा साहब बोले—तुम्हें यह बरात देखकर हँसी आयी होगी। सभी हँस रहे हैं, लेकिन बेटा, यह बारात नहीं है। कैसी बारात और कैसा दूल्हा। यह विक्षिप्त हृदय का उद्गार है, और कुछ नहीं। मन कहता था—जब ईश्वर को मेरी सुधि नहीं, वह मुझपर जरा भी दया नहीं करते, अकारण ही मुझे सताते हैं, तो मैं क्यों उनसे डरूँ? जब स्वामी को सेवक की फिक्र नहीं, तो सेवक को स्वामी की फिक्र क्यों होने लगी? मैंने उतना अन्याय किया, जितना मुझसे हो सका। धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य के विचार दिल से निकाल डाले। आखिर मेरी विजय हुई कि नहीं?
अहल्या—लल्लू अपने लिए रानी भी लेता आया है।
राजा—सच कहना। यह तो खूब हुई। क्या वह भी साथ है?
मोटर के पिछले भाग में बहूजी बैठी थीं। अहल्या ने पुकारकर कहा—बहू, पिताजी के चरणों के दर्शन कर लो।
बहूजी आयी। राजा साहब देखकर चकित हो गये। ऐसा अनुपम सौन्दर्य उन्होंने किसी चित्र में भी न देखा था। बहू को गले लगाकर आशीर्वाद दिया और अहल्या से मुस्कराकर बोले—शंखधर तो बड़ा भाग्यवान् मालूम होता है। यह देव-कन्या कहाँ से उड़ा लाया?
अहल्या—दक्षिण के एक राजा की कुमारी है। ऐसा शील-स्वभाव है कि देखकर भूख प्यास बन्द हो जाती है। आपने सच ही कहा—देवकन्या है।
राजा-तो यह मेरी बरात का जुलूस नहीं, शंखधर के विवाह का उत्सव है!
५१
कमला को जगदीशपुर में आकर ऐसा मालूम हुआ कि वह एक युग के बाद अपने