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[कायाकल्प
 

भी सन्देह नहीं।

मनोरमा—राजा साहब ने भी तो रानी देवप्रिया को जवानी में देखा होगा।

रामप्रिया—हाँ, देखा है और देख लेना, वह भी यही बात कहेंगे। सुरत का मिलना और बात है, वही हो जाना और बात है। चाहे कोई माने या न माने; मैं तो यही कहूँगी कि देवप्रिया फिर अवतार लेकर आयी हैं।

मनोरमा—हाँ यह बात हो सकती है।

रामप्रिया—सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि इसने गीत भी वही गाया, जो देवप्रिया बहन को बहुत पसन्द था। ज्योतिषियों से इस विषय में राय लेनी चाहिए। देवप्रिया को जो कुछ भोग विलास करना था, कर चुकी। अब वह यहाँ क्या करने आयी है?

मनोरमा—आप तो ऐसी बातें कर रही हैं, मानो वह अपनी खुशी से आयी है।

रामप्रिया—यह तो होता ही है, और तुम क्या समझती हो? आत्मा को वही जन्म मिलता है, जिसकी उसे प्रबल इच्छा होती है। मैंने कई पुस्तकों में पढ़ा है, आत्माएँ एक जन्म का अधूरा काम पूरा करने के लिए फिर उसी घर में जन्म लेती हैं। इसकी कितनी ही मिसालें मिलती हैं।

मनोरमा—लेकिन रानी देवप्रिया तो राज-पाट स्वयं छोड़कर तीर्थयात्रा करने गयीं थी।

रामप्रिया—क्या हुआ बहन, उसकी भोग तृष्णा शान्त न हुई थी। अगर वही तृष्णा उन्हे फिर लायी है, तो कुशल नहीं है।

मनोरमा—आपकी बातें सुनकर तो मुझे भी शंका होने लगी है।

इसी समय अहल्या सामने से निकल गयी। मारे गर्व और आनन्द के उसके पाँव नमीन पर न पड़ते थे। पति की याद भी इस आनन्द प्रवाह में विलीन हो गयी थी, जैसे संगीत की ध्वनि आकाश में विलीन हो जाती है।


५२

मुंशी वज्रधर ने यह शुभ-समाचार सुना, तो फौरन् घोड़े पर सवार हुए और राजभवन आ पहुँचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पाँव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया। मुंशीजी ने पोते को छाती से लगा लिया और गद्‌गद कण्ठ से बोले—यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूँ। यह अमिलाषा पूरी हो गयी। बस, इतनी लालसा और है कि तुम्हारा राज-तिलक देख लूँ। तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गये?

शंखधर ने लजाते हुए कहा—जी नहीं, शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूँ?

मुंशी—तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाये?

शंखधर—वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने अपने को जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो शायद वह मुझसे मिलना भी