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[कायाकल्प
 

इन दिनों राजा साहब बहुधा एकान्त में बैठे किसी चिन्ता में निमग्न रहते थे, बाहर कम निकलते थे। भोजन से भी उन्हें कुछ अरुचि हो गयी थी। वह मानसिक अन्धकार, जो नैराश्य की दशा में उन्हे घेरे हुए था, अब एकाएक आशा के प्रकाश से छिन्न-भिन्न हो गया था। धर्मानुराग के साथ उनका कर्त्तव्य आज भी जाग पड़ा था। जैसे जीवन लीला के अन्तिम काण्ड में हमें भक्ति की चिन्ता सवार होती है, बड़े बड़े भोगी भी रामायण और भागवत का पाठ करने लगते हैं, उसी भाँति राजा साहब को भी अब बहुधा अपनी अपकीर्ति पर पश्चात्ताप होता था।

आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। रनिवास में सोता पड़ा हुआ था। अहल्या के बहुत समझाने पर भी मनोरमा अपने पुराने भवन में न आयी। वह उसी छोटी कोठरी में पड़ी हुई थी। सहसा राजा साहब ने प्रवेश किया। मनोरमा विस्मित होकर उठ खड़ी हुई।

राजा साहब ने कोठरी को ऊपर-नीचे देखकर करुण-स्वर में कहा—नोरा, मैं आज तुमसे अपना अपराध क्षमा कराने आया हूँ। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, इसे क्षमा कर दो। मुझे इतने दिनों तक क्या हो गया था, वह नहीं सकता। ऐसा मालूम होता है कि रोहिणी की मृत्यु के पश्चात् जो दुर्घटनाएँ हुईं, उन्होंने मेरे चित्त को अस्थिर कर दिया। मुझे ऐसा मालूम होता था कि शत्रुओं से घिरा हूँ। मन में भाँति-भाँति की शङ्काएँ उठा करती थीं। किसी पर विश्वास न होता था। अब भी मुझे किसी अनिष्ट की शङ्का हो रही है; लेकिन वह दशा नहीं। तुम मेरी रक्षा के लिए जो कुछ कहती और करती थीं, उसमें मुझे कपट की गन्ध आती थी। अब की ही तुमने मुझे सावधान रहने के लिए कहा था, लेकिन मैं उसका आशय कुछ और ही समझ बैठा था और तुम्हारे ऊपर पहरा बिठा दिया था। अपने होश में रहनेवाला आदमी कभी ऐसी बातें न करेगा।

मनोरमा ने सजल नेत्र होकर कहा—उन बातों को याद न कीजिए। आपको भी दुःख होता है और मुझे भी दुःख होता है। मेरा ईश्वर ही जानता है कि एक क्षण के लिए भी मेरे हृदय में आपके प्रति दुर्भावना नहीं उत्पन्न हुई।

राजा—जानता हूँ नोरा, जानता हूँ। तुम्हें इस कोठरी में पड़े देखकर इस समय मेरा हृदय फटा जाता है। हाँ! अब मुझे मालूम हो रहा है कि दुर्दिन में मन के कोमल भावों का सर्वनाश हो जाता है और उनकी जगह कठोर एवं पाशविक भाव जागृत हो जाते हैं। सच तो यह है नोरा, कि मेरा जीवन ही निष्फल हो गया। प्रभुता पाकर मुझे जो कुछ करना चाहिए या, सो कुछ न किया, जो कुछ करने के मंसूबे दिल में थे, एक भी न पूरे हुए। जो कुछ किया, उल्टा ही किया। मैं रानी देवप्रिया के राज्यप्रबन्ध पर हँसा करता था, पर मैंने प्रजा पर जितना अन्याय किया, उतना देवप्रिया ने कभी नहीं किया था। मैं कर्ज को काला साँप समझता था, पर आज रियासत कर्ज के बोझ से लदी हुई है। प्रजा रानी देवप्रिया का नाम आज भी आदर के साथ लेती है।