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कायाकल्प]
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मेरा नाम सुनकर लोग कानों पर हाथ रख लेते हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, मुझे यह रियासत न मिली होती, तो मेरा जीवन कहीं अच्छा होता।

मनोरमा—मुझे भी अकसर यही विचार हुआ करता है।

राजा—अब जीवन-लीला समाप्त करते समय अपने जीवन पर निगाह डालता हूँ, तो मालूम होता है, मेरा जन्म ही व्यर्थ हुआ। मुझसे किसी का उपकार न हुआ। मैं गृहस्थी के उस सुख से भी वंचित रहा, जो छोटे-से-छोटे मनुष्यों के लिए भी सुलभ है। मैंने कुल मिलाकर छः विवाह किये और सातवाँ करने जा रहा था। क्या किसी भी स्त्री को मुझसे सुख पहुँचा? यहाँ तक कि तुम जैसी देवी को भी मैं सुखी न रख सका। नोरा, इसमें रत्ती भर भी बनावट नहीं है कि मेरे जीवन में अगर कोई मधुर स्मृति है, तो वह तुम हो, और तुम्हारे साथ मैंने यह व्यवहार किया! कह नहीं सकता, मेरी आँखों पर क्या परदा पड़ा हुआ था। शंखधर अपने साथ मेरे हृदय की सारी कोमलताओं को लेता गया था। उसे पाकर आज मैं फिर अपने को पा गया हूँ। सच कहता हूँ, उसके पाते ही मैं अपने को पा गया, लेकिन नोरा, हृदय अन्दर-ही-अन्दर काँप रहा है। मैं इस शंका को किसी तरह दिल से बाहर नहीं निकाल सकता कि कोई अनिष्ट होनेवाला है। उस समय मेरी क्या दशा होगी? उसकी कल्पना करके मैं घबरा जाता हूँ, मुझे रोमाञ्च हो जाता है और जी चाहता है, प्राणों का अन्त कर दूँ। ऐसी मालूम होता है, मैं सोने की गठरी लिये भयानक वन में अकेला चला जा रहा हूँ, न जाने कब डाकुओं का निर्दय हाथ मेरी गठरी पर पड़ जाय। बस, यह धड़कन मेरे रोम-रोम में समायी हुई है!

मनोरमा—जब ईश्वर ने गयी हुई आशाओं को जिलाया है, तो अब सब कुशल ही होगी। अगर अनिष्ट होना होता, तो यह बात ही न होती। मैं तो यही समझती हूँ।

राजा—क्या करूँ नोरा, मुझे इस विचार से शान्ति नहीं होती। मुझे भय होता है कि यह किसी अमंगल का पूर्वाभास है।

यह कहते-कहते राजा साहब मनोरमा के और समीप चले आये और उसके कान के पास मुँह ले जाकर बोले—यह शङ्का बिलकुल अकारण ही नहीं है, नोरा! रानी देवप्रिया के पति मेरे बड़े भाई होते थे। उनकी सूरत शंखधर से बिलकुल मिलती है। जवानी में मैंने उनको देखा था। हूबहू यही सूरत थी। तिल-बराबर भी फर्क नहीं। भाई साहब का एक चित्र भी मेरे अलबम में हैं। तुम यही कहोगी कि यह शंखधर ही का चित्र है। इतनी समानता तो जुड़वाँ भाइयों में भी नहीं होती। कोई पुराना नौकर नहीं है, नहीं तो मैं इसकी साक्षी दिला देता। पहले शंखधर की सूरत भाई साहब से उतनी ही मिलती थी, जितनी मेरी। अब तो ऐसा जान पडता है कि स्वयं भाई साहब ही आ गये हैं।

मनोरमा—तो इसमें शंका की क्या बात है? उसी वृक्ष का फल शंखधर भी तो है।

राजा—आह! नोरा, तुम यह बात नहीं समझ रही हो। तुम्हें कैसे समझा दूँ?