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[कायाकल्प
 

गर्व इस बात का था कि मेरे स्वामी इतना आदर करते हैं। आज विशालसिह ने मनोरमा के हृदय पर अन्तिम विजय पायी। आज मनोरमा को अपने स्वामी की सहृदयता ने जीत लिया। प्रेम सहृदयता ही का रसमय रूप है। प्रेम के अभाव में सहृदयता ही दम्पति के सुख का मूल हो जाती है।


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राजा साहब को अब किसी तरह शान्ति न मिलती थी। कोई न कोई भयंकर विपत्ति आनेवाली है, इस शंका को वह दिल से न निकाल सकते थे। दो चार प्राणियों को जोर-जोर से बातें करते सुनकर वह घबरा जाते थे कि कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी। शंखधर कहीं जाता, तो जब तक वह कुशल से लौट न आये, वह व्याकुल रहते थे। उनका जी चाहता था कि वह मेरी आँखों के सामने से दूर न हो। उसके मुख की ओर देखकर उनकी आँखें आप ही-आप सजल हो जाती थीं। वह रात को उठकर ठाकुरद्वारे में चले जाते और घण्टों ईश्वर की वन्दना किया करते। जो शंका उनके मन में थी, उसे प्रगट करने का उन्हें साहस न होता था। वह उसे स्वयं व्यक्त करते थे। वह अपने मरे हुए भाई की स्मृति को मिटा देना चाहते थे, पर वह सूरत आँखों में न टलती थी। कोई ऐसी क्रिया, ऐसी आयोजना, ऐसी विधि न थी, जो इस पर मँडरानेवाले संकट का मोचन करने के लिए न की जा रही हो, पर राजा साहब को शान्ति न मिलती थी।

सन्ध्या हो गयी थी। राजा साहब ने मोटर मँगवायी और मुंशी वज्रधर के मकान पर जा पहुँचे। मुंशीजी की संगीत मण्डली जमा हो गयी थी। संगीत ही उनका दान, व्रत, ध्यान और तप था। उनकी सारी चिन्ताएँ और सारी बाधाएँ सगीत स्वरों में विलीन हो जाती थीं। मुंशीजी राजा साहब को देखते ही खड़े होकर बोले—आइए, महाराज! आज ग्वालियर के एक आचार्य का गाना सुनवाऊँ। आपने बहुत गाने सुने होंगे, पर इनका गाना कुछ और ही चीज है।

राजा साहब मन में मुंशीजी की बेफिक्री पर झुँझलाये। ऐसे प्राणी भी संसार में हैं, जिन्हें अपने विलास के आगे किसी वस्तु की परवा नहीं। शंखधर से मेरा और इनका एक-सा सम्बन्ध है, पर यह अपने संगीत में मस्त है और मैं शङ्काओं से व्यग्र हो रहा हूँ। सच है—'सबसे अच्छे मूढ़, जिन्हें न व्यापत जगत-गति।' बोले—इसीलिए तो आया ही हूँ, पर जरा देर के लिए आपसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।

दोनों आदमी अलग एक कमरे में जा बैठे। राजा साहब सोचने लगे, किस तरह बात शुरू करूँ? मुंशीजी ने उनको असमंजस में देखकर कहा—मेरे लायक जो काम हो, फरमाइए। आप बहुत चिन्तित मालूम होते हैं। बात क्या है?

राजा—मुझे आपके जीवन पर डाह होता है। आप मुझे भी क्यों नहीं निर्द्वन्द्व रहना सिखा देते?

मुंशी—यह तो कोई कठिन बात नहीं। इतना समझ लीजिए कि ईश्वर ने संसार