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कायाकल्प]
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बाबूजी से अपनी तारीफ सुनी थी। इसका भी एक कारण था—आपकी सहृदयता और आपकी विश्वासमय सेवा।

राजा—रानी किसलिए बनना चाहती थीं, नोरा?

मनोरमा—आप राजा जिस लिए बनना चाहते थे। उसी लिए मैं रानी बनना चाहती थी। कीर्ति, दान, यश, सेवा, मैं इन्हीं को अधिकार के सुख समझती हूँ; प्रभुता और विलास को नहीं।

राजा—इसका आशय यही है न, कि कीर्ति तुम्हारे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा थी या कुछ और? कीर्ति के लिए तुमने यौवन के अन्य सुखों का त्याग कर दिया। मैं यह पहले से ही जानता था नोरा, और इसी लिए स्वभाव से कृपण होने पर भी मैंने कभी तुम्हारे उपकार के कामों में बाधा नहीं डाली। मेरे लिए सेवा और उपकार गौण बातें थीं। अधिकार, ऐश्वर्य, शासन इन्हीं को मैं प्रधान समझता है। तुम्हारा आदर्श कुछ और है, मेरा कुछ और। जब कीर्ति के लिए तुमने जीवन के और सभी सुखों पर लात मार दी, तो मैं चाहता हूँ कि कोई ऐसी व्यवस्था कर दूँ, जिसमें तुम्हें आगे चल कर किसी बाधा का सामना न करना पड़े। कौन जानता है कि क्या होने वाला है, नोरा। पर मैं यह आशा कदापि नहीं करता कि शङ्खधर तुम्हें प्रसन्न रखने की उतनी चेष्टा करेगा, जितनी उसे करनी चाहिए। मैं उसकी बुराई नहीं कर रहा हूँ। मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है, इसलिए मैं यह चाहता हूँ कि रियासत का एक भाग तुम्हारे नाम लिख दूँ। मेरी बात सुन लो, मनोरमा! मैंने दुनिया देखी है और दुनिया का व्यवहार जानता हूँ| इसमें न मेरी कोई हानि है, न तुम्हारी और न शंखधर की। तुम्हें इसका अख्तियार होगा कि यदि इच्छा हो, तो अपना हिस्सा शंखधर को दे दो। लेकिन एक हिस्से पर तुम्हारा नाम होना जरूरी है। मैं कोई आपत्ति न मानूँगा।

मनोरमा—मेरी कीर्ति अब इसी में है कि आपकी सेवा करती रहूँ।

राजा—नोरा, तुम अब भी मेरी बातें नहीं समझीं। मेरे मन में कैसी-कैसी शंकाएँ है, यह मैं तुमसे कहूँ, तो तुम्हारे ऊपर जुल्म होगा। मुझे लक्षण बुरे दिखायी दे रहे हैं।

मनोरमा ने अब की दृढ़ता से कहा—शकाएँ निर्मूल हैं; लेकिन यदि ईश्वर कुछ बुरा ही करने वाले हों, तो भी मैं शंखधर की प्रतियोगिनी बनना स्वीकार न करूँगी, जिसे मैंने पुत्र की भाँति पाला है। चक्रधर का पुत्र इतना कृतघ्न नहीं हो सकता।

राजा ने जाँघ पर हाथ पटक कर कहा—नोरा, तुम अब भी नहीं समझीं। खैर, कल से तुम नये भवन में रहोगी। यह मेरी आज्ञा है।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए। बिजली के निर्मल प्रकाश में मनोरमा उन्हें खड़ी देखती रही। गर्व से उसका हृदय फूला न समाता था। इस बात का गर्व नहीं था कि अब फिर रियासत में उसकी तूती बोलेगी, फिर वह मन-माना धन लुटायेगी।