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पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/३३९

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[कायाकल्प
 


राजा—अगर ईश्वर चाहते कि कुशल हो, तो यह समस्या ही क्या आगे आती? उन्हें कुछ-न-कुछ अनिष्ट करना है। मेरी शंका निर्मूल नहीं है मुंन्शीजी! बहू की सूरत भी रानी देवप्रिया से मिल रही है। रामप्रिया तो बहू को देखकर मूर्च्छित हो गयी थी। वह कहती थी, देवप्रिया ही ने अवतार लिया है। भाई और भावज का फिर इस घर में अवतार लेना क्या अकारण ही है? भगवान, अगर तुम्हें फिर वही लीला दिखानी हो, तो मुझे संसार से उठा लो।

मुन्शीजी ने अबकी कुछ चिन्तित होकर कहा—यह तो वास्तव में बड़ी विचित्र बात है!

राजा—विचित्र नहीं है मुन्शीजी, इस रियासत का सर्वनाश होनेवाला है! रानी देवप्रिया ने अगर जन्म लिया है, तो वह कभी सधवा नहीं रह सकती। उसे न जाने कितने दिनों तक अपने पूर्व कर्मों का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। देव ने मुझे दण्ड देने ही के लिए मेरे पूर्व कर्मों के फल स्वरूप यह विधान किया है, पर आप देख लीजिएगा, मैं अपने को उसके हाथ की कठपुतली न बनाऊँगा, अगर मैंने बुरे कर्म किये हैं तो मुझे चाहे जो दण्ड दो, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूँगा। मुझे अन्धा कर दो, भिक्षुक बना दो, मेरा एक-एक अंग गल-गलकर गिरे, मैं दाने दाने का मुहताज हो जाऊँ। ये सारे ही दण्ड मुझे मंजूर हैं, लेकिन शंखधर का सिर भी दुखे, यह मैं नहीं सहन कर सकता। इसके पहले मैं अपनी जान दे दूँगा। विधाता के हाथ की कठपुतली न बनूँगा।

मुन्शी—आपने किसी पण्डित से इस विषय में पूछताछ नहीं की?

राजा—जी नहीं, किसी से नहीं। जो बात प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, उसे किसी से क्या पूछूँ। कोई अनुष्ठान, कोई प्रायश्चित्त इस संकट को नहीं टाल सकता। उसके रूप की कल्पना करके मेरी आँखों में अंधेरा छा जाता है। पण्डित लोग अपने स्वार्थ के लिए तरह-तरह के अनुष्ठान बता देंगे, लेकिन अनुष्ठानों से क्या विधि का विधान पलटा जा सकता है? मैं अपने को इस धोखे में नहीं डाल सकता। मुन्शीजी, अनुष्ठानों का मूल्य मैं खूब जानता हूँ। माया बड़ी कठोर हृदया होती है। मुन्शीजी! मैंने जीवन-पर्यन्त उसकी उपासना की है। कर्म-अकर्म का एक क्षण भी विचार नहीं किया। उसका मुझे यह उपहार मिल रहा है। लेकिन मैं उसे दिखा दूँगा कि वह मुझे अपने विनोद का खिलौना नहीं बना सकती। मैं उसे कुचल दूँगा, जैसे कोई जहरीले साँप को कुचल डालता है। अपना सर्वनाश अपनी आँखों देखने ही में दुःख है। मैं उस पिशाचिनी को यह अवसर न दूँगा कि वह मुझे रुलाकर आप हँसे। मैं संसार के सबसे सुखी प्राणियों में हूँ। इस दशा में हूँ और इसी दशा में संसार से विदा हो जाऊँगा। मेरे बाद मेरा निर्माण किया हुआ भवन रहेगा या गिर पड़ेगा, इसकी मुझे चिन्ता नहीं। अपनी आँखों से अपना सर्वनाश न देखूँगा। मुझे आश्चर्य हो रहा है कि इस स्थिति में भी आप कैसे संगीत का आनन्द उठा सकते हैं?

मुन्शीजी ने गम्भीर भाव से कहा—मैं अपनी जिन्दगी में कभी नहीं रोया। ईश्वर ने