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कायाकल्प]
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जिस दशा में रखा, उसी में प्रसन्न रहा। फाके भी किये हैं और आज ईश्वर की दया से पेट भर भोजन भी करता हूँ, पर रहा एक ही रस। न साथ कुछ लाया हूँ न ले जाऊँगा। व्यर्थ क्यों रोऊँ?

राजा—आप ईश्वर को दयालु समझते हैं? ईश्वर दयालु नहीं है।

मुंशी—मैं तो ऐसा नहीं समझता।

राजा—नहीं, वह पल्ले सिरे का कपटी व निर्दयी जीव है, जिसे अपने ही रचे हुए प्राणियों को सताने में आनन्द मिलता है, जो अपने ही बालकों के बनाये हुए घरौंदे रौंदता फिरता है। आप उसे दयालु कहें, संसार उसे दयालु कहे, मैं तो नहीं कह सकता। अगर मेरे पास शक्ति होती, तो मैं उसका यह सारा विधान उलट-पलट देता। उसमें ससार के रचने की शक्ति है, किन्तु उसे चलाने की नहीं!

राजा साहब उठ खड़े हुए और चलते-चलते गम्भीर भाव से बोले—जो बात पूछने आया था, वह तो भूल ही गया। आपने साधु सन्तों की बहुत सेवा की है। मरने के बाद जीव को किसी बात का दुःख तो नहीं होता?

मुंशी—सुना तो यही है कि होता है और उससे अधिक होता है, जितना जीवन में।

राजा—झूठी बात है, बिलकुल झूठी। विश्वास नहीं आता। उस लोक के दुःख-सुख और ही प्रकार के होंगे। मैं तो समझता हूँ, किसी बात की याद ही न रहती होगी। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर ये सब विद्वानों के गोरख-धन्धे हैं। उनमें न पड़ूँगा। अपने को ईश्वर की दया और भय के धोखे में न डालूँगा। मेरे बाद जो कुछ होना है, वह तो होगा ही, आपसे इतना ही कहना है कि अहल्या को ढाढस दीजियेगा। मनोरमा की ओर से मैं निश्चिन्त हूँ। वह सभी दशाओं में सँभल सकती है। अहल्या उस वज्राघात को न सह सकेगी।

मुंशीजी ने भयभीत होकर राजा साहब का हाथ पकड़ लिया और सजल नेत्र होकर बोले—आप इतने निराश क्यों होते हैं? ईश्वर पर भरोसा कीजिए। सब कुशल होगी।

राजा—क्या करूँ, मेरा हृदय आपका-सा नहीं है। शंखधर का मुँह देखकर मेरा खून ठण्डा हो जाता है। वह मेरा नाती नहीं, शत्रु है। इससे कहीं अच्छा था कि निस्सन्तान रहता। मुंशीजी, आज मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि निर्धन होकर मैं इससे कहीं सुखी रहता।

राजा साहब द्वार की ओर चले। मुंशीजी भी उनके साथ मोटर तक आये। शंका के मारे मुँह से शब्द न निकलता था। दीन-भाव से राजा साहब की ओर देख रहे थे, मानो प्राण-दान माँग रहे हों।

राजा साहब ने मोटर पर बैठकर कहा—अब तकलीफ न कीजिए, जो बात कही है, उसका ध्यान रखिएगा।

मुन्शीजी मूर्तिवत् खड़े रहे। मोटर चली गयी।